शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

क्या मध्यपाषाण काल ही वैदिक युग था?

(प्रकाशित)
भारत में नवपाषाण काल तथा पुरापाषाण काल के बीच की अवधि के लिए मध्यपाषाण काल शब्द का प्रयोग किया जाता है, वास्तव में यह काल इन दोनों के बीच का संक्रमण काल था इसमें कुछ विशेषताएं परिमार्जित अथवा यथावत रूप में पुरापाषाण काल की भी विद्यमान रही तो कुछ ऐसी विशेषताएं भी प्रारंभिक रूप में विद्यमान रही जो नवपाषाण काल के आगमन का आभास देती है। मध्यपाषाण कालीन मानव जो अभी तक आखेटक एवं खाद्य संग्राहक था,ने कृषि एवं पशुपालन की ओर अपना प्रथम कदम बढ़ाया था ।मध्यपाषाण कालीन मानव का भारत में सर्वप्रथम प्रमाण 1867-68 में ए.सी.एल कार्लाइल द्वारा खोजा गया था ।उन्हें मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) की कैमूर पर्वत श्रंखला की गुफाओं में बड़ी मात्रा में लघु पाषाण उपकरण(मिक्रोलिथस) प्राप्त हुए थे ।भारत में मध्यपाषाण कालीन अध्ययन को गति प्रदान करने का श्रेय डॉ. एच. डी.सांकलिया को जाता है। सांकलिया ने गुजरात के अनेक स्थानों का उत्खनन कराया, जिसमें लंघनाज प्रमुख है। मध्यपाषाण काल को पुरापाषाण से पृथक करके अध्ययन करना होगा। क्योंकि इस काल में औजार निर्माण प्रद्योगिकी में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए, जिसने मध्यपाषाणकालीन मानव की जीवन शैली, जीवनचर्या एवं उसके महत्वपूर्ण रहन-सहन को बदल कर रख दिया। हालांकि पुरापाषाण काल की कुछ परंपराएं भी जारी रही, मध्यपाषाण कालीन उपकरण पुरापाषाण काल की अपेक्षा एक विस्तृत विभाग में मिले हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मध्य पाषाण कालीन मानव, एक विस्तृत भूभाग में रहता था। मध्य पाषाण काल 1200 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व तक माना जाता है। उस समय से ही आद्ययुग (होलोसीन ऐज) का प्रारंभ माना जाता है। इस समय जलवायु में पुनः बड़े परिवर्तन हुए। तापमान में वृद्धि हुई। तापमान में वृद्धि के फलस्वरुप पृथ्वी के बड़े भाग पर जमीं बर्फ तथा ग्लेशियर पिघलने लगे फलस्वरूप अनेक नदियों का विकास हुआ। जिनमें प्रचुर मात्रा में मछलियों की वृद्धि हुई।
फलस्वरूप आदिमानव हेतु भोजन का अपेक्षाकृत आसान एवं सुरक्षित विकल्प उपलब्ध हुआ। जमीन के हिम मुक्त हो जाने से तीव्र गति से वनस्पतियों की भी वृद्धि हुई। बड़े विशालकाय जीव लुप्तप्राय हो गए। उनके स्थान पर छोटे एवं तेज तर्रार जीव जैसे हिरण, भेड़-बकरी तथा गाय-बैल आदि तेजी से बढ़े। इस प्रकार आदिमानव के समक्ष अब नए संसाधन उपलब्ध थे ।नए संसाधनों एवं जीविका के अनेक विकल्पों ने तकनीकी में सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उपलब्ध अवसरों का अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए मध्यपाषाण कालीन मानव ने उपकरण तकनीकी में पर्याप्त परिवर्तन किए। अब उसे छोटे एवं तीव्र उपकरणों की आवश्यकता थी ताकि उनकी सहायता से सुदूर क्षेत्र तक तथा तीव्रता से शिकार किया जा सके। अतः उसने लघुपाषाण उपकरणों का विकास किया। यह उपकरण अत्यंत लघु आकार के थे। वह लगभग आधे इंच से लेकर पौन इंच के होते थे। इन उपकरणों में पुरापाषाण कालीन उपकरणों के लघुरूप भी शामिल थे, जैसे बरछी,तीर, आरी अथवा दरांती,ब्लेड,छिद्रक, स्क्रेपर,ब्यूरिन, बेधक एवं चांद्रिक आदि। कुछ स्थानों से अस्थि निर्मित उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। कुछ नए उपकरण जैसे लुनेट,ट्रेपीज़, त्रिभुज तथा धनुष बाण भी प्राप्त हुए हैं। यह लघु उपकरण संयुक्त उपकरणों की भांति प्रयुक्त किए जाते थे। इन्हें लकड़ी अथवा हड्डी के हत्थे में फिट कर के उपयोग में लाया जाता था।
मध्य पाषाण कालीन पुरास्थल, पुरापाषाण कालीन पुरास्थलों की तुलना में कहीं अधिक प्राप्त होते हैं। इससे अनुमान लगाया जाता है कि मध्यपाषाण काल में जनसंख्या में तीव्र वृध्दि हुई थी। इस काल में मानव ने उन स्थानों पर भी बस्तियां बसाई जहां पुरापाषाण कालीन मानव नहीं पहुंच पाया था। उदाहरणार्थ:- दक्षिण-मध्य उत्तर प्रदेश के गंगा मैदानों में भी मध्य पाषाणकालीन मानव बस्तियां पाई गई हैं। भीमबेटका के सभी शैलाश्रयों से मध्य पाषाणकालीन संस्कृति के प्रमाण मिले हैं जबकि पुरापाषाण कालीन संस्कृतियों के प्रमाण बहुत कम शैलाश्रयों से प्राप्त हुए हैं। यह बात भी मध्य पाषाणकालीन जनसंख्या वृद्धि का ही प्रमाण है।
मध्यपाषाण कालीन समाज
जलवायु परिवर्तन के सकारात्मक प्रभाव होने मध्य पाषाण कालीन समाज को कई प्रकार से प्रभावित किया:
# जीव-जंतु एवं वनस्पतियों की तीव्र  वृद्धि
# अनेक सदा वाही नदियों का विकास  # मत्स्ययन का का प्रचार विकास
# जनसंख्या वृद्धि
# बस्तियों का विस्तार
प्रायद्वीपीय भारत में मध्य पाषाण कालीन प्रस्तर उद्योग का आधार स्फटिक पत्थर है। जलालहल्ली ( बेंगलुरु, कर्नाटक) के आसपास विशिष्ट स्फटिक उद्योग का संचालन किया जाता था।लघु प्रस्तर उपकरणों की सहायता से अब मनुष्य अधिक कुशल हो गया।भोजन की प्रचुरता (पर्याप्त वनस्पति तथा मांस) के कारण जीवन की गुणवत्ता में बदलाव आया। मृत्यु दर पहले की अपेक्षा काफी कम हो गई। स्त्री पुरुष दोनों का स्वास्थ्य अच्छा होने के कारण कुल प्रजनन दर में भी वृद्धि हुई इसके परिणाम स्वरुप भी जनसंख्या बढ़ने लगी।

मध्य पाषाण कालीन मानव के खानाबदोश जीवन में भी पहले की अपेक्षा बदलाव हुआ। भोजन के अन्य विकल्प (वनस्पति एवं मछलियां आदि) उपलब्ध होने के कारण वह अपना खाली समय अन्य गतिविधियों में लगा सकता था- जैसे हाथों से मृदभांडों का निर्माण, चोपानीमांडो, लंघनाज तथा बागोर से हस्तनिर्मित अनगढ़ मृदभांड प्राप्त हुए हैं, चोपानीमांडो के मृदभाडों को रस्सी दबा कर बनाई गई आकृतियों से सजाया गया है।घर के लिए घास-फूंस के छप्परों का निर्माण तथा सबसे महत्वपूर्ण चित्रकारी निर्माण। भारत में प्राप्त अधिकांश शैल चित्र इसी काल से संबंधित हैं। यह शैलचित्रों के रूप में है। जिनमें मध्यपाषाण कालीन मानव की रचनात्मकता का तो पता चलता ही है, साथ ही उनके दैनिक सामाजिक-आर्थिक क्रियाकलापों को भी समझा जा सकता है। भीमबेटका के शैलचित्र विश्व प्रसिद्ध है। चील, काराकोरम,गिलगिट, लेह, बुर्जहोम (सभी कश्मीर में) कोप्पागल्लू तथा संगनकल्लू (कर्नाटक) से भी अनेक शैलचित्र मिले हैं। विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर स्पष्ट है कि अब सिर्फ मांस ही भोजन का प्रमुख स्रोत नहीं था। चक्की, सिलबट्टे, हस्तनिर्मित मृदभांड के पुरातात्विक साक्ष्य तथा पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्यों की उपलब्धि इस बात की पुष्टि करती है।
(जिनकी कालावधि कार्बन डेटिंग के अनुसार 8000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व निर्धारित की गई है, अर्थात नवपाषाण काल तथा ताम्र पाषाण काल की समानांतर भी यह काल विद्यमान था) बागोर (राजस्थान), आदमगढ़ (मध्य प्रदेश) तथा लंघनाज (गुजरात) में गाय-बैल। भेड़-बकरी पालन के प्राचीनतम साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। अवश्य ही मांस के अतिरिक्त अन्य पशु उत्पादों जैसे दूध, गोबर (जलावन हेतु), सींग आदि भी पशुपालन का उद्देश्य रहा होगा। यह पालतू पशु एक प्रकार से अतिरिक्त मांस का भंडार थे। इनका आवश्यकता पड़ने पर भोजन हेतु प्रयोग किया जा सकता था। बागोर से डी एन मिश्रा को पशु वधशाला के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इस काल में संभवतः पति-पत्नी वाले परिवारों की भी आदिम अवस्था में शुरुआत हो चुकी थी। सामान्यतः एक कब्र में एक ही व्यक्ति दफनाया जाता था। लेकिन सराय नाहर राय (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) से एक साथ एक ही कब्र में 4 व्यक्तियों को दफनाने का भी प्रमाण मिला है। इनमें दो पति तथा दो पत्नियां हैं। स्त्री पुरुष के वामांग की ओर है। शवों के साथ दैनिक कार्यों में उपयोग आने वाली वस्तुएं भी हैं जो उनके पुनर्जन्म में विश्वास का द्योतक है। सराय नाहर राय, लंघनाज तथा बागोर से शवाधानों के प्रमाण मिले हैं  यह भारत में शवाधान के सबसे प्राचीन प्रमाण हैं। शवों को घर के अंदर ही दफनाया जाता था। इस काल का मानव कच्ची झोपड़ियों तथा गुफाओं में रहता था। झोपड़ियां घास-फूंस तथा वृक्षों की टहनियों आदि से निर्मित होती थी:-जैसी की ग्रामीण भारत में आज भी देखने को मिल जाती हैं। खंबे गाड़कर झोपड़ियों की दीवार को सहारा दिया जाता था तथा फर्श को पत्थरो की सहायता से पक्का किया जाता था। इस काल का मानव पहले की अपेक्षा अत्यधिक क्रियाशील, विवेकशील तथा रचनात्मक था। उसने अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्ति देने के लिए चित्र बनाएं एवं स्वयं को सुंदर दिखाने के लिए आभूषण बनाए तथा भोजन आदि आवश्यक्ताओं के लिए हस्तनिर्मित मृदभांड बनाएं। शिकार के लिए सुंदर प्रभावी तथा छोटे उपकरण बनाए। कीमती पत्थरों का मितव्यता से प्रयोग किया तथा उनकी बर्बादी को नियंत्रित किया।

मध्यपाषाण कालीन संस्कृति का विस्तार
मध्य पाषाणकालीन लोग देश के कुछ क्षेत्रों जैसे केरल, बंगाल डेल्टा, उत्तर पूर्वी भारत तथा पंजाब के मैदानों को छोड़कर लगभग संपूर्ण भारत में फैले थे। मुख्यतः उत्तरी गुजरात, मारवाड़, मेवाड़ (राजस्था इलाहाबाद-मिर्जापुर में गंगा के कछारी मैदान (दक्षिण-मध्य उत्तर प्रदेश) में अनेक मध्य पाषाणकालीन कालीन स्थल मिले हैं। संगनकल्लू (बेल्लारी,कर्नाटक) तूतीकोरिन (तमिलनाडु) कुचाई (मयूरभंज, उड़ीसा), वीरभानपुर (पश्चिम बंगाल) सराय नाहर राय, महादहा, दमदमा (प्रतापगढ), लेखानिया (मिर्जापुर) मोरहाना पहाड़ (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश) चोपानीमांडव (बेलन घाटी मेजा तहसील इलाहाबाद), आदमगढ़ (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश) भीमबेटका (मध्य प्रदेश), लंघनाज(महेसाणा, गुजरात आवाज मलखान वीरपुर गुजरात), तिलवाड़ा (बाड़मेर जिला) तथा बागौर (भीलवाड़ा राजस्थान, कोठारी नदी पर स्थित भारत का सबसे बड़ा मध्य पाषाण स्थल है, सर्वाधिक अन्वेषण भी यहीं पर किया गया है) पटणे (महाराष्ट्र), बरकच्छा, सिद्ध पुर तथा बाराशिमला (मध्य भारत के पहाड़ी क्षेत्र में), गिध्दलूर,रेणिगुंटा, नागार्जुन कोंडा (आंध्र प्रदेश) आदि प्रमुख मध्य पाषाणकालीन स्थल हैं। तूतीकोरिन में लघुपाषाण उपकरण, लाल रेतीले टीलों (टेरी टीलों का स्थानीय नाम) में दबे पाए गए हैं। इन्हें टीलों के नाम पर टेरी उपकरण कहा जाता है। टेरी उद्योग का प्रमुख कच्चा माल स्फटिक तथा हल्का भूरा श्रृंग प्रस्तर है। कासुशोल, जनमिरे बाभलगो तथा जलगढ़ (सभी कोंकण तट पर), कालीकट गोवा, किब्बनहल्ली तथा गिध्दलूर (पूर्वी घाट), नागार्जुनकोंडा, बेलगाम, बेरापेडी गुफा, संगनकल्लू,जमुनीपुर (फूलपुर तहसील इलाहाबाद), कुढ़ा, बिछिया,भीखपुर,तथा मरुडीह (कोरांव तहसील इलाहाबाद), मोरहानापहाड़ (उत्तर प्रदेश) के शैलाश्रयों में दो तथा चार पहियों वाले रथों को धनुष बाण तथा भाले लिए सैनिक समूह द्वारा घेरे हुए चित्रित किया गया है। यह प्रश्न उठता है कि क्या मध्य पाषाणकालीन लोग ही वैदिक जन थे? इस प्रश्न की पड़ताल आवश्यक है क्योंकि रथ वैदिक जनों (आर्यों) का ही प्रमुख वाहन था। रथ का वैदिक युग में महत्वपूर्ण स्थान था। अंत में हम कह सकते हैं कि मध्य पाषाणकालीन मानव ने पहले की अपेक्षा अंशतः स्थिर जीवन की शुरुआत कर दी थी । दावे के साथ उसके जीवन की स्थिरता के बारे में कहना तो मुश्किल है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि अब कम से कम एक स्थान पर जहां पर्याप्त भोजन, पानी उपलब्ध था उसके ठहरने की अवधि काफी लंबी हो गई थी।कहा जा सकता है कि आदिम रूप में कृषि पशुपालन तथा स्थिर अधिवास की नींव पड़ चुकी थी। मध्य पाषाण काल, पुरापाषाण तथा नवपाषाण काल के बीच संक्रमण काल था, इसी ने नवपाषाण संस्कृति की आधारशिला रखी थी।
मध्यपाषाण कालीन पुरातात्विक साक्ष्य बड़े पैमाने पर रथ, घुड़सवार,एवं यद्ध के दृश्य ऋग्वैदिक जीवन की और संकेत करते हैं।अतः क्या मध्यपाषाण काल ही वैदिक युग था,इस दिशा में अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।

(प्रस्तुत लेख लेखक का निजी शोधपत्र है)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें