शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

तिब्बत: इतिहास से वर्तमान का चिंतन


तिब्बत:इतिहास से वर्तमान का चिंतन                              @सुनील सत्यम

भारत चीन संबंधों में चीन पर माओ के कब्जे के बाद से ही अविश्वास हावी रहा है।देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा नैतिकता और आदर्शों को महत्ता प्रदान की जिसके परिणाम हाल ही तक देश भुगतने को अभिशप्त है।नेहरू जी की समस्या यह थी कि "वह साम्यवाद से प्रभावित भी थे,उसे आजमाना भी चाहते थे लेकिन उसे लेकर हमेशा सशंकित भी थे"स्टालिन उनके मित्र थे तो माओ पर भी उंन्हे भरोसा था लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में भारत के साम्यवादियों के रवैये ने उन्हें साम्यवाद पर शंकात्मक रुख भी अपनाने को प्रेरित किया।लेकिन ऐसी शंका यदि उन्होंने विदेशी साम्यवाद पर भी की होती तो आज परिस्थितियां कुछ और ही होती. वर्ष 1949 में नये चीन की स्थापना के बाद के अगले वर्ष, भारत ने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये। इस तरह भारत चीन लोक गणराज्य को मान्यता देने वाला प्रथम गैर-साम्यवादी देश बना।जबकि चीन में भारत के तत्कालीन राजदूत के एम पणिक्कर साम्यवाद के धुर विरोधी थे।इतना ही नहीं नेहरू जी ने चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्यता दिलाने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया।चीन ने सदस्यता इस शर्त पर हासिल की थी कि यदि चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता देनी है तो चांग काई श्येक की फारमोसा (ताइवान) सरकार को इससे बेदखल करना होगा।नेहरू जी ने फारमोसा को सदस्यता से बेदख़ल करवाने में भी चीन का पूरा साथ दिया।चीन भारत से रिश्तों की आड़ में हिमालय पार खुद को मजबूत करते करते हिमालय तक आ पहुंचा और नेहरू जी को भनक तक नही लगी। नेहरू और माओ ने 29 अप्रैल 1954 को ऐतिहासिक पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए .चीन के क्षेत्र तिब्बत और भारत के बीच व्यापार और आपसी संबंधों को लेकर ये समझौता हुआ था.
इस समझौते की प्रस्तावना में पाँच सिद्धांत थे जो अगले कुछ वर्षों तक भारत-चीन की विदेश नीति की रीढ़ रहे. इसके बाद ही हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे लगे और भारत ने किसी भी सैन्य गट से खुद को अलग करते हुए ही विदेशी सम्बन्धों के निर्धारण में गुट निरपेक्ष  दृष्टिकोण अपनाया.
पंचशील समझौते के पांच मुख्य बिंदु थे जो भारत चीन संबंधों के अलावा भी वैश्विक संबंधों के लिए मौलिक तथ्य बन गए।ये पांच बिंदु थे:-
1-एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान
2-परस्पर अनाक्रमण
3-एक दूसरे के आंतरिक मामलों में   हस्तक्षेप नहीं करना
4-समान और परस्पर लाभकारी संबंध
5-शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व
इस समझौते को लेकर 31 दिसंबर 1953 और 29 अप्रैल 1954 को महत्वपूर्ण बैठकें हुई, जिसके बाद अंततः बीजिंग में इसे अंतिम रूप दिया गया।
पंचशील शब्द, बौद्ध साहित्य से लिया गया है जो बौद्ध धर्म में गृह साधकों के लिए एक प्रकार की आचरण नियमावली का अंग है।वैसे बौद्ध धर्म मे दस शील शामिल है जो मुख्यतः ब बौद्ध भिक्षुओं का व्यवहार निर्धारित करते हैं।
    पंचशील समझौते का सबसे अदूरदर्शी पहलू था भारत द्वारा तिब्बत से आने समस्त विशेषाधिकारों को त्याग कर इस पर चीनी संप्रभुता को मान्यता प्रदान कर देना। दरअसल, भारत को 1904 की आंग्ल-तिब्बत संधि से तिब्बत के संबंध कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हुए थे। पंचशील समझौते के अनुसार भारत उन  समस्त विशेषाधिकारों का परित्याग कर दिया।असल में पंचशील समझौते से भारत ने पाया कुछ भी नही और गंवाया बहुत कुछ।यहां तक कि इस समझौते से भारत ने एक बफर राज्य की समाप्ति पर हस्ताक्षर करके,भावी आक्रमण को न्यौता दे दिया।पंचशील समझौता भारत के लिए एक बेहतर अवसर हो सकता था जिसका "भावुकता" के कारण नेहरू लाभ नही उठा पाए।भारत चीन के मध्य समस्त विवाद इस समझौते पर आहति के रूप में डाले जा सकते थे।इतना ही नही समझौता करके भारतीय नेतृत्व लापरवाही की चादर तानकर चैन की नींद सो गया।
वास्तव में समझौते के पांचों बिंदुओं से चीन को लेना देना नही था वरन इस समझौते को आकर्षण प्रदान करके उसने भारत से वह हासिल कर लिए जो समझौते के पीछे उसका "गुप्त प्रयोजन' था। यह बात सिद्ध होने में ज्यादा समय नही लगा। समझौते के मात्र 87 वर्षों बाद भारत पर चीन के आक्रमण ने चीन की नीति और नीयत के खोखलेपन को दुनिया के सामने उजागर कर दिया।

विश्वास के बदले सीमा पर घात...
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      बहाना जो भी रहा हो,चीन ने भारत पर आक्रमण करके स्वयं ही पंचशील समझौते को नष्ट कर दिया था।अनाक्रमण- इस समझौते का एक महत्वपूर्ण पहलू था।लेकिन चीन ने न केवल आक्रमण किया बल्कि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं एक दूसरे की संप्रभुता के सम्मान करने के सिद्धान्त का उल्लंघन किया।इस प्रकार यदि तार्किक रूप से देखा जाए तो यह समझौता 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के दिन से ही अस्तित्व में नही है लेकिन भारतीय नेतृत्व अभी भी इससे चिपका हुआ है जिसका समय समय पर रणनीतिक लाभ लेने से चीन आज भी बाज नही आता है।चीन आज भी अरुणाचल प्रदेश को न केवल विवादित क्षेत्र मानता है वरन उस पर अपना दावा भी करता है।कश्मीर में अक्साई-चिन के क्षेत्र पर उसका अवैध कब्जा है ही।हाल ही में डोकलाम में भी चीन ने पुनः अपने साम्राज्यवादी इरादे जाहिर कर दिए।
   समय आ गया है कि भारत 1962 के आक्रमण का हवाला देते हुए 1954 के पंचशील समझौते को खंडित करार देकर तिब्बत पर अपना रुख साफ करें और घोषणा करें कि तिब्बत पर चीन की एकतरफा अधिकारिता नही है और तिब्बत एक विवादित क्षेत्र है।एक अडिग, स्थिर एवं दूरदर्शी विदेश नीति को अपनाते हुए ही भारत चीन से को सम्मानजनक प्राप्ति कर सकता है।डोकलाम विवाद इसका ताजा उदाहरण है।सिक्यांग प्रांत में चीन द्वारा मानवाधिकार हनन के मुद्दे का भी चीन के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों में लाभ लेने के लिए करना चाहिए।चीन भारत की जिस प्रकार चारों और से सामरिक घेराबंदी कर रहा है।उसी प्रकार भारत को भी वियतनाम,ताइवान,मंगोलिया,दक्षिण कोरिया,आदि देशों के साथ संबंधों को आर्थिक के साथ साथ सामरिक रुप प्रदान करना चाहिए,हालांकि भारत इस दिशा में काफी आगे बढ़ा है,लेकिन इस दिशा में और अधिक प्रयास करने जरूरी है।
तिब्बत को लेकर भारत की विदेश नीति में एक द्विधारा है जिसे केवल मोदी सरकार ही परिवर्तित कर सकती है क्योंकि विदेश नीति को लेकर देश के वर्त प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी स्पष्ट है उतना कोई नही रहा।तिब्बत द्विधारा यह है कि 1954 के पंचशील समझौते के बाद भारत ने तिब्बत पर अपने विशेषाधिकार त्यागते हुए चीनी प्रभुत्व को मान्यता दे दी। बाद में हमने 1959 के तिब्बत विद्रोह के बाद तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को शरण दी।1962 में चीन द्वारा पंचशील समझौता तोड़ते हुए भारत पर आक्रमण कर दिया और भारत के एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया लेकिन हमने पंचशील समझौता को अमान्य नही किया।ऐसे में हम तिब्बत को लेकर द्विधारात्मक रवैया अपनाए हुए है जिसके कारण भारत-चीन संबंधों में भारत दबाव के कारकों का लाभ नही उठा पा रहा है।हमे इस विषय मे एकल प्रवाही होना पड़ेगा।या तो हमे पंचशील को 1962 में खंडित घोषित करके अमान्य करना चाहिए अथवा तिब्बत शरणार्थी विषय पर पुनर्विचार करना चाहिए।मैक्लोडगंज में तिब्बत के8 निर्वासित सरकार भारत चीन संबंधों में उस दशा में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है जब हम 1954 के समझौते को अमान्य करके चीन के साथ द्विपक्षीय संबंध निर्धारण करने वाला कोई नया समझौता करें जिसमें चीन के साथ, तिब्बत को लेकर भारत एवं तिब्बत के हित में एक सकारात्मक सौदेबाजी की जा सके।

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