भारत में उत्तर पुरापाषाण काल
@ सुनील सत्यम
----------/-अतीत-मंथन----------
भारत में उत्तर पुरापाषाण काल अनेक पर्यावरणीय परिवर्तनों का साक्षी रहा है। इस काल के शिल्प उपकरण अधिक हल्के और छोटे हैं। दुधारी ब्लेड का निर्माण इस काल की प्रमुख विशेषता है।तक्षणियों का निर्माण भी सर्वप्रथम इसी काल में हुआ। इस काल के औजारों के आकार एवं भार में पहले की अपेक्षा अत्यधिक कमी आ गई थी। इस काल में उपकरण निर्माण हेतु दबाव तकनीकी का प्रयोग हुआ।
इस तकनीक में नुकीले मुंह वाले पत्थर का प्रयोग मूल पत्थर से फलक निकालने के लिए किया जाता था। इस काल के औजार दूर दूर तक ले जाए जा सकते थे। क्योंकि यह अत्यधिक हल्के थे। इस प्रकार मानव का कार्यक्षेत्र अब काफी विस्तृत हो गया था। यूरोप के विपरीत भारत में अस्थि निर्मित उपकरण बहुत कम पाए गए हैं। मुच्छट्टाचिंतामणि गवि (कुरनूल आंध्र प्रदेश) से हस्तनिर्मित खुर्चनियाँ तथा नुकीले औजार मिले हैं। भारत में आग के चूल्हे के प्रथम साक्ष्य भी यहीं से प्राप्त हुए हैं। औजार निर्माण हेतु उपयुक्त पत्थर स्थानीय रूप से प्राप्त न होने पर दूर क्षेत्रों से भी पत्थर आयात किया जाता था। बेलन घाटी में इस के प्रमाण मिले हैं। अतः स्पष्ट है कि इस काल तक वस्तु विनिमय व्यवस्था प्रारंभ हो चुकी थी। मत्स्यमाला (हारपून) और सुई जैसे कुछ औजारों की पहचान भी की गई है। विदित होता है कि उत्तर पुरापाषाण कालीन उद्योगों का उद्भव पाकिस्तान तथा पश्चिम भारत(ब्लूचिस्तान) के शुष्क क्षेत्र में हुआ था।
प्रोफेसर जी आर शर्मा द्वारा बेलन घाटी का उत्खनन किया गया। यहां उन्हें चोपानी मांडो में उत्तर पुरापाषाणिक चरण से लेकर नवपाषाण तक के एक बसावट अनुक्रम का पता चला है। बेटमचोरला (आंध्र प्रदेश) से भी हड्डियों के अनेक उपकरण मिले हैं। रिवात (पाकिस्तान) संघाव (अफगानिस्तान) माइलस्टोन 101, बुध-पुष्कर, रेणीगुंटूर (आंध्र प्रदेश) विषाडी( गुजरात) शोरापुर, बीजापुर (कर्नाटक) प्रमुख दर्शनीय स्थल है।
उत्तर पुरापाषणिक समाज एवं अर्थव्यवस्था
लोग प्रायः खुले आसमान के तले जल स्रोतों के निकट वृक्षों पर तथा गुफाओं में रहते थे। यह लोग पेयजल, पर्याप्त वृक्ष एवं जीवजंतु वाले क्षेत्र में झुंड बनाकर रहते थे। औजार निर्माण हेतु कच्चे माल की उपलब्धता में प्रमुख रूप से उनका आवास स्थल प्रभावित होता था। उनकी बस्तियां स्थाई शिविर होती थी। ये खानाबदोश जीवन जीते थे। शिकार की तलाश में इधर उधर घूमते रहते थे। इस काल की जीविका पद्धति के साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं। किंतु इतना जरूर है कि ये लोग भोजन हेतु जंगली जानवरों का शिकार करते थे अथवा ये लोग मरे हुए जानवरों का मांस खाते थे। संभव है कि कुछ उपयोगी पौधे भी उनके भोजन का अंग रहे हो।
विटाफिंजी तथा हिग्स ने फिलिस्तीनी क्षेत्र में प्रागैतिहासिक अर्थव्यवस्था का अध्ययन करके स्थल-फैलाव विश्लेषण की अवधारणा का प्रतिपादन किया। इस अवधारणा के अनुसार आदिमानव भोजन और पत्थरों के लिए अपने आवास स्थल से 10 किलोमीटर की परिधि में ही विचरण करता था। भारत में कर्नाटक में को हुसंगी क्षेत्र का अध्ययन कर के के. पद्धाया ने भी इसी मत की पुष्टि की है। अपने आवास से 10 किलोमीटर के लगभग दूरी तक इस काल का मानव अपने क्रियाकलाप करके वापस आ जाता था। यद्यपि बहुत संभव है कि कभी कभी शिकार का पीछा करते करते यह काफी दूर भी निकल जाते होंगे। पुरापाषाण कालीन मानव 20-30 के झुंड में रहते होंगे। क्योंकि इनकी आजीविका का प्रमुख साधन आखेट करना था। जो हमेशा अकेले मानव से संभव नहीं था। आवासीय ढाँचों के प्रमाण नगण्य मिले हैं। हुसंगी में ग्रेनाइट के शिलापट के टुकड़े तथा पैसारा (मुंगेर जिला, बिहार) नामक स्थल से हम खम्बे गाड़ने के गड्ढे मिले हैं। जिनके बारे में विद्वानों का मत है इनका प्रयोग छप्पर बनाने के लिए किया जाता होगा।
पुरापाषाण कालीन मानव का जीवन बड़ा कठिन था। आत्म सुरक्षा एवं खाद्य सुरक्षा हेतु यह समूह में रहते थे। समूह में महिला पुरुष तथा बच्चे सभी होते थे। बहुत संभव है कि यह यौन संबंधों में स्वेच्छाचारी हो और पति पत्नी जैसी कोई व्यवस्था न हो। जब समूह में पुरापाषाण कालीन मानव शिकार पर जाते हो तो संभव है कि कुछ महिलाएं, बच्चों तथा अधिशेष मांस (यदि कुछ हो तो) की देखभाल के लिए शिविरों में ही रुक जाती हों। इस बात की भी प्रबल संभावना है कि उपकरण निर्माण में महिलाओं की ज्यादा भूमिका रही हो। क्योंकि जब पुरुष शिकार के लिए जाते होंगे तो शिविर में रह जाने वाली महिलाएं तथा शिकार हेतु अक्षम हो गए बुजुर्ग पुरुष औजार निर्माण का कार्य करते हों! अनेक शिल्पस्थल (जहां पूर्ण निर्मित औजार तथा परतें तथा अर्धनिर्मित औजार एवं निर्माण सामग्री प्राप्त हुई हो) मिले हैं। जैसे हुसंगी, कोवल्ली तथा पैसारा (बिहार) आदि। इस बात की संभावना है कि पुरापाषाण कालीन मानव यहां से निर्मित औजारों को सुदूर क्षेत्र के लोगों से निर्माण सामग्री अथवा मांस से विनिमय करता हो। क्योंकि इस बात के पर्याप्त संकेत मिले हैं कि ऐसे स्थानों पर भी पाषाण उपकरण मिले हैं जहां उनमें प्रयुक्त सामग्री संबंधित क्षेत्र में दूर-दूर तक उपलब्ध ही नहीं है। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ऐसा माना जा सकता है कि अलग-अलग क्षेत्र में परस्पर संबंध स्थापित हो चुके थे। यद्यपि संबंधों का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट नहीं है।
धर्म:
उत्तर पुरापाषाण कालीन भारतीयों के धर्म के संबंध में कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस संबंध में बहुत कम जानकारी प्राप्त है। तथापि उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह मान लेने के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि उत्तर पुरापाषाण कालीन लोग प्रकृति पूजा करते होंगे। अनेक साक्ष्य ऐसे प्राप्त हुए हैं जो वर्तमान हिंदू धर्म की परंपराओं के सदृश्य हैं, जिसके आधार पर वर्तमान हिंदू धर्म से उत्तर पुरापाषाण कालीन लोगों के धार्मिक विचारों की साम्यता दिखाई देती है। बागौर (मध्य प्रदेश) से अनगढ़ पत्थरों से निर्मित एक चबूतरा मिला है जिसके बीच में एक तिकोना पत्थर फिट किया गया है। यह पुरातात्विक साक्ष्य वैसा ही है जैसा वर्तमान हिंदू धर्म के मंदिरों में चबूतरे पर शिवलिंग की स्थापना की गई हो। इलाहाबाद तथा बर्कले विश्वविद्यालय के अन्वेषणकर्ताओं द्वारा यह महत्वपूर्ण खोज की गई है। अनेक इतिहासकार तथा पुरातत्ववेत्ता चबूतरे पर स्थापित इस पत्थर को मातृ-देवी के रूप में स्वीकार करते हैं। प्रोफेसर जी आर शर्मा (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) को बेलन घाटी (मिर्जापुर जनपद) के लोहंडानाला (लोहदानाला) से उत्तर पुरापाषाण काल की अस्थि निर्मित वस्तु मिली है। जिसे शर्मा मातृदेवी की मूर्ति मानते हैं। परंतु वाकणकर तथा वेदनारिक इसे हारपून अथवा कांटेदार बरछी बताते हैं। पुरापाषाण कालीन शिल्प कला संबंधी कुछ अवशेष प्राप्त हुए हैं। पटणे (महाराष्ट्र) से शुतुरमुर्ग के अंडे के खोल पर बनी स्थलाकृति मिली है। इस पर सीधी सीधी रेखा वाले आड़े-तिरछे चित्र बने हैं। भीमबेटका से भी अनेक शैलचित्र मिले हैं, जो उत्तर पुरापाषाण काल के लोगों की धार्मिक, सामाजिक गतिविधियों पर प्रकाश डालते हैं। भीमबेटका शैलाश्रयों की खोज 1957- 58 में डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर द्वारा की गई थी। इन गुफाओं में पुरापाषाण कालीन मानव की गतिविधियों से संबंधित अनेक चित्र उपलब्ध हैं। भीमबेटका मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में भोपाल से लगभग 46 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। महाभारत ग्रंथ के अनुसार भीमबेटका का संबंध महाभारत के चरित्र भीम से है।भीमबेटका अर्थात भीमबैठका में बने चित्र पुरापाषाण कालीन मनुष्य के जीवन के सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक पक्षों को चित्रित करते हैं। हिंदुओं की इस प्राचीनतम चित्रकारी को 12000 वर्षों से अधिक पुराना माना जाता है। यहां चट्टानों पर अनेक चित्र उकेरे गए हैं। अधिकांश तस्वीरें लाल एवं सफेद रंग की हैं। कभी-कभी पीले रंग के बिंदुओं से भी इनको सजाया गया है। भीमबेटका की गुफाओं में वन्य प्राणियों के शिकार के अनेक दृश्य चित्रित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त घोड़ा, हाथी, बाघ आदि के चित्र भी उत्कीर्ण किए गए हैं। इन चित्रों में दर्शाए गए मुख्य चित्र नृत्य, संगीत बजाने, शिकार करने, घोड़े और हाथी की सवारी करने, शरीर पर आभूषणों को सजाने और शहद जमा करने के विषय में है। शेर, जंगली सूअर, हाथी, कुत्ते, घड़ियाल जैसे जानवरों को भी यहां चित्रित किया गया है। गुफाओं की दीवार धार्मिक चित्रों से सजी हुई है।