रविवार, 29 अक्तूबर 2017

उत्तर पुरापाषाण काल

भारत में उत्तर पुरापाषाण काल

@ सुनील सत्यम

----------/-अतीत-मंथन---------- 

भारत में उत्तर पुरापाषाण काल अनेक पर्यावरणीय परिवर्तनों का साक्षी रहा है। इस काल के शिल्प उपकरण अधिक हल्के और छोटे हैं। दुधारी ब्लेड का निर्माण इस काल की प्रमुख विशेषता है।तक्षणियों का निर्माण भी सर्वप्रथम इसी काल में हुआ। इस काल के औजारों के आकार एवं भार में पहले की अपेक्षा अत्यधिक कमी आ गई थी। इस काल में उपकरण निर्माण हेतु दबाव तकनीकी का प्रयोग हुआ।

इस तकनीक में नुकीले मुंह वाले पत्थर का प्रयोग मूल पत्थर से फलक निकालने के लिए किया जाता था। इस काल के औजार दूर दूर तक ले जाए जा सकते थे। क्योंकि यह अत्यधिक हल्के थे। इस प्रकार मानव का कार्यक्षेत्र अब काफी विस्तृत हो गया था। यूरोप के विपरीत भारत में अस्थि निर्मित उपकरण बहुत कम पाए गए हैं। मुच्छट्टाचिंतामणि गवि (कुरनूल आंध्र प्रदेश) से हस्तनिर्मित खुर्चनियाँ तथा नुकीले औजार मिले हैं। भारत में आग के चूल्हे के प्रथम साक्ष्य भी यहीं से प्राप्त हुए हैं। औजार निर्माण हेतु उपयुक्त पत्थर स्थानीय रूप से प्राप्त न होने पर दूर क्षेत्रों से भी पत्थर आयात किया जाता था। बेलन घाटी में इस के प्रमाण मिले हैं। अतः स्पष्ट है कि इस काल तक वस्तु विनिमय व्यवस्था प्रारंभ हो चुकी थी। मत्स्यमाला (हारपून) और सुई जैसे कुछ औजारों की पहचान भी की गई है। विदित होता है कि उत्तर पुरापाषाण कालीन उद्योगों का उद्भव पाकिस्तान तथा पश्चिम भारत(ब्लूचिस्तान) के शुष्क क्षेत्र में हुआ था।

प्रोफेसर जी आर शर्मा द्वारा बेलन घाटी का उत्खनन किया गया। यहां उन्हें चोपानी मांडो में उत्तर पुरापाषाणिक चरण से लेकर नवपाषाण तक के एक बसावट अनुक्रम का पता चला है। बेटमचोरला (आंध्र प्रदेश) से भी हड्डियों के अनेक उपकरण मिले हैं। रिवात (पाकिस्तान) संघाव (अफगानिस्तान) माइलस्टोन 101, बुध-पुष्कर, रेणीगुंटूर (आंध्र प्रदेश) विषाडी( गुजरात) शोरापुर, बीजापुर (कर्नाटक) प्रमुख दर्शनीय स्थल है।

उत्तर पुरापाषणिक समाज एवं अर्थव्यवस्था

लोग प्रायः खुले आसमान के तले जल स्रोतों के निकट वृक्षों पर तथा गुफाओं में रहते थे। यह लोग पेयजल, पर्याप्त वृक्ष एवं जीवजंतु वाले क्षेत्र में झुंड बनाकर रहते थे। औजार निर्माण हेतु कच्चे माल की उपलब्धता में प्रमुख रूप से उनका आवास स्थल प्रभावित होता था। उनकी बस्तियां स्थाई शिविर होती थी। ये खानाबदोश जीवन जीते थे। शिकार की तलाश में इधर उधर घूमते रहते थे। इस काल की जीविका पद्धति के साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं। किंतु इतना जरूर है कि ये लोग भोजन हेतु जंगली जानवरों का शिकार करते थे अथवा ये लोग मरे हुए जानवरों का मांस खाते थे। संभव है कि कुछ उपयोगी पौधे भी उनके भोजन का अंग रहे हो।

विटाफिंजी तथा हिग्स ने फिलिस्तीनी क्षेत्र में प्रागैतिहासिक अर्थव्यवस्था का अध्ययन करके स्थल-फैलाव विश्लेषण की अवधारणा का प्रतिपादन किया। इस अवधारणा के अनुसार आदिमानव भोजन और पत्थरों के लिए अपने आवास स्थल से 10 किलोमीटर की परिधि में ही विचरण करता था। भारत में कर्नाटक में को हुसंगी क्षेत्र का अध्ययन कर के के. पद्धाया ने भी इसी मत की पुष्टि की है। अपने आवास से 10 किलोमीटर के लगभग दूरी तक इस काल का मानव अपने क्रियाकलाप करके वापस आ जाता था। यद्यपि बहुत संभव है कि कभी कभी शिकार का पीछा करते करते यह काफी दूर भी निकल जाते होंगे। पुरापाषाण कालीन मानव 20-30 के झुंड में रहते होंगे। क्योंकि इनकी आजीविका का प्रमुख साधन आखेट करना था। जो हमेशा अकेले मानव से संभव नहीं था। आवासीय ढाँचों के प्रमाण नगण्य मिले हैं। हुसंगी में ग्रेनाइट के शिलापट के टुकड़े तथा पैसारा (मुंगेर जिला, बिहार) नामक स्थल से हम खम्बे गाड़ने के गड्ढे मिले हैं। जिनके बारे में विद्वानों का मत है इनका प्रयोग छप्पर बनाने के लिए किया जाता होगा।

पुरापाषाण कालीन मानव का जीवन बड़ा कठिन था। आत्म सुरक्षा एवं खाद्य सुरक्षा हेतु यह समूह में रहते थे। समूह में महिला पुरुष तथा बच्चे सभी होते थे। बहुत संभव है कि यह यौन संबंधों में स्वेच्छाचारी हो और पति पत्नी जैसी कोई व्यवस्था न हो। जब समूह में पुरापाषाण कालीन मानव शिकार पर जाते हो तो संभव है कि कुछ महिलाएं, बच्चों तथा अधिशेष मांस (यदि कुछ हो तो) की देखभाल के लिए शिविरों में ही रुक जाती हों। इस बात की भी प्रबल संभावना है कि उपकरण निर्माण में महिलाओं की ज्यादा भूमिका रही हो। क्योंकि जब पुरुष शिकार के लिए जाते होंगे तो शिविर में रह जाने वाली महिलाएं तथा शिकार हेतु अक्षम हो गए बुजुर्ग पुरुष औजार निर्माण का कार्य करते हों! अनेक शिल्पस्थल (जहां पूर्ण निर्मित औजार तथा परतें तथा अर्धनिर्मित औजार एवं निर्माण सामग्री प्राप्त हुई हो) मिले हैं। जैसे हुसंगी, कोवल्ली तथा पैसारा (बिहार) आदि। इस बात की संभावना है कि पुरापाषाण कालीन मानव यहां से निर्मित औजारों को सुदूर क्षेत्र के लोगों से निर्माण सामग्री अथवा मांस से विनिमय करता हो। क्योंकि इस बात के पर्याप्त संकेत मिले हैं कि ऐसे स्थानों पर भी पाषाण उपकरण मिले हैं जहां उनमें प्रयुक्त सामग्री संबंधित क्षेत्र में दूर-दूर तक उपलब्ध ही नहीं है। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ऐसा माना जा सकता है कि अलग-अलग क्षेत्र में परस्पर संबंध स्थापित हो चुके थे। यद्यपि संबंधों का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट नहीं है।

धर्म:

उत्तर पुरापाषाण कालीन भारतीयों के धर्म के संबंध में कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस संबंध में बहुत कम जानकारी प्राप्त है। तथापि उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह मान लेने के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि उत्तर पुरापाषाण कालीन लोग प्रकृति पूजा करते होंगे। अनेक साक्ष्य ऐसे प्राप्त हुए हैं जो वर्तमान हिंदू धर्म की परंपराओं के सदृश्य हैं, जिसके आधार पर वर्तमान हिंदू धर्म से उत्तर पुरापाषाण कालीन लोगों के धार्मिक विचारों की साम्यता दिखाई देती है। बागौर (मध्य प्रदेश) से अनगढ़ पत्थरों से निर्मित एक चबूतरा मिला है जिसके बीच में एक तिकोना पत्थर फिट किया गया है। यह पुरातात्विक साक्ष्य वैसा ही है जैसा वर्तमान हिंदू धर्म के मंदिरों में चबूतरे पर शिवलिंग की स्थापना की गई हो। इलाहाबाद तथा बर्कले विश्वविद्यालय के अन्वेषणकर्ताओं द्वारा यह महत्वपूर्ण खोज की गई है। अनेक इतिहासकार तथा पुरातत्ववेत्ता चबूतरे पर स्थापित इस पत्थर को मातृ-देवी के रूप में स्वीकार करते हैं। प्रोफेसर जी आर शर्मा (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) को बेलन घाटी (मिर्जापुर जनपद) के लोहंडानाला (लोहदानाला) से उत्तर पुरापाषाण काल की अस्थि निर्मित वस्तु मिली है। जिसे शर्मा मातृदेवी की मूर्ति मानते हैं। परंतु वाकणकर तथा वेदनारिक इसे हारपून अथवा कांटेदार बरछी बताते हैं। पुरापाषाण कालीन शिल्प कला संबंधी कुछ अवशेष प्राप्त हुए हैं। पटणे (महाराष्ट्र) से शुतुरमुर्ग के अंडे के खोल पर बनी स्थलाकृति मिली है। इस पर सीधी सीधी रेखा वाले आड़े-तिरछे चित्र बने हैं। भीमबेटका से भी अनेक शैलचित्र मिले हैं, जो उत्तर पुरापाषाण काल के लोगों की धार्मिक, सामाजिक गतिविधियों पर प्रकाश डालते हैं। भीमबेटका शैलाश्रयों की खोज 1957- 58 में डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर द्वारा की गई थी। इन गुफाओं में पुरापाषाण कालीन मानव की गतिविधियों से संबंधित अनेक चित्र  उपलब्ध हैं। भीमबेटका मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में भोपाल से लगभग 46 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। महाभारत ग्रंथ के अनुसार भीमबेटका का संबंध महाभारत के चरित्र भीम से है।भीमबेटका अर्थात भीमबैठका में बने चित्र पुरापाषाण कालीन मनुष्य के जीवन के सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक पक्षों को चित्रित करते हैं। हिंदुओं की इस प्राचीनतम चित्रकारी को 12000 वर्षों से अधिक पुराना माना जाता है। यहां चट्टानों पर अनेक चित्र उकेरे गए हैं। अधिकांश तस्वीरें लाल एवं सफेद रंग की हैं। कभी-कभी पीले रंग के बिंदुओं से भी इनको सजाया गया है। भीमबेटका की गुफाओं में वन्य प्राणियों के शिकार के अनेक दृश्य चित्रित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त घोड़ा, हाथी, बाघ आदि के चित्र भी उत्कीर्ण किए गए हैं। इन चित्रों में दर्शाए गए मुख्य चित्र नृत्य, संगीत बजाने, शिकार करने, घोड़े और हाथी की सवारी करने, शरीर पर आभूषणों को सजाने और शहद जमा करने के विषय में है। शेर, जंगली सूअर, हाथी, कुत्ते, घड़ियाल जैसे जानवरों को भी यहां चित्रित किया गया है। गुफाओं की दीवार धार्मिक चित्रों से सजी हुई है।

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

अफ्रीका में मोहनदास

दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी का मुकदमा लड़ने यदि मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका नही जाते तो संभवतः भारत को "महात्मा" के रूप में एक गांधी नही मिलता और दुनिया गांधीवाद के शांतिवादी दर्शन से वंचित रह जाती।जिस "सत्याग्रह" पद्दत्ति को गांधी जी ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रयोग करके "सूर्यास्त रहित" साम्राज्य की चूलें हिला दी,भारत उससे भी सम्भवतः वंचित रह जाता।
अफ्रीका पहुंचे मोहनदास:

अपनी कंपनी का मुकदमा लड़ने के लिए भारतीय मूल के दक्षिण अफ्रीकी नागरिक सेठ अब्दुल्ला ने 1893 में गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका बुलाया था। उनका बुलावा स्वीकार करके मोहनदास दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हो गए।
गांधी जी लंबी जलयात्रा करके दक्षिण अफ्रीका के डरबन नगर में पहुंचे। डरबन से उन्होंने प्रिटोरिया गमन के लिए 7 जून 1893 को ट्रेन पकड़ी।उन्होंने प्रथम श्रेणी यात्रा करने के लिए टिकट खरीदा था।लेकिन पीटरमारिट्जबर्ग पहुंचने पर मोहनदास को सहयात्रियों द्वारा, जिनमे प्रायः सभी ब्रिटिश नागरिक थे, रेल के तृतीय श्रेणी यान में जाने के लिए कहा गया। गांधी जी ने अपना प्रथम श्रेणी रेल टिकट सह-यात्रियों को दिखाते हुए, तृतीय श्रेणी रेल यान में जाने से स्पष्ट मना कर दिया गया।इसके बाद जो मोहनदास के साथ घटित हुई उसने उस इकहरे बदन वाले मोहनदास करमचंद गांधी को "महात्मा गांधी" बनने वाले मार्ग पर अग्रसर कर दिया।सह-यात्रियों ने मोहनदास को प्रथम श्रेणी रेल यान से जबरन धक्का देकर ट्रेन से नीचे गिरा दिया।यह घटना विश्व इतिहास में ऐतिहासिक घटना के रूप में दर्ज होने वाली थी,विश्व इतिहास को इसका साक्षी बनना था।इस घटना ने मोहनदास को अंदर तक झकझोर दिया।उन्हें अंदर तक आंदोलित कर दिया।खुद को सहज करते हुए मोहनदास खड़े हुए और कड़ाके की  ठंड में  पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन के वेटिंग रूम में पहुंचे।गांधी जी का अंतर्मन इस अन्यायपूर्ण घटना को लेकर उद्वेलित था।पूरी रात वह सो नही सके। वह रातभर  सोचते रहे कि क्या दक्षिण अफ़्रीका में मैं यह भेदभाव सहन कर पाऊंगा? क्या मुझे भारत वापस लौट जाना चाहिए? लेकिन क्या भारत में भी मुझे यही सब नही सहन करना पड़ेगा? क्या  दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ मुझे संघर्ष करना चाहिए?
सुबह होने तक बीती रात 7 जून 1893 को दक्षिण अफ्रीका के पीटरमारिट्जबर्ग में हुए अपमान जनक व्यवहार ने एक नए गांधी को जन्म दिया जो दुनिया को एक नई संघर्ष पद्दत्ति "सत्याग्रह" एवं इसकी शक्ति से परिचित कराने वाला था।दक्षिण अफ्रीका के इस शहर से ही गांधी जी के सत्याग्रह की नींव पड़ चुकी थी। उस समय स्वयं मोहनदास करम चंद गांधी नहीं जानते थे कि उनका यही हथियार कभी भारत की आजादी का रास्ता मार्ग प्रशस्त करके अंग्रेजी साम्राज्य का सूर्यास्त कर देगा!
अपमान के कई घूंट:
दक्षिण अफ्रीका में भेदभाव सहन करने की पीटरमारिट्जबर्ग की घटना गांधी जी के अफ्रीकी प्रवास की ऐसी पहली और अकेली घटना नही थी जब उनको अपमान और भेदभाव सहन करना पड़ा हो। इसके अतिरिक्त भी गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका में कई बार भेदभाव का सामना करना पड़ा था। एक बार उन्हें घोड़ागाड़ी में अंग्रेज यात्री के लिए सीट नहीं छोड़ने पर पूरी यात्रा पायदान पर बैठकर करने के अलावा घोड़ा गाड़ी के चालक से मार भी खानी पड़ी थीI।
एक मुकदमा लड़ने गए मोहनदास अगले लगभग 21 वर्षो तक दक्षिण अफ्रीका में ही रह जाएंगे यह कभी खुद उन्होंने स्वप्न में भी नही सोचा था।गांधी जी प्रवासी भारतीयों के बीच उनकी निस्वार्थ सेवा एवं व्यवहार के कारण बेहद लोकप्रिय हो गए।दक्षिण अफ्रीकी प्रवासी भारतीयों ने भेदभाव के विरुध्द संघर्ष में गांधी जी को अपना नेतृत्व सौंप दिया।अफ्रीका में उतपन्न परिस्थितियों ने गांधी जी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि अभी उनका कार्य पूरा नही हुआ है। दक्षिण अफ्रीका में उनके प्रवास की अवधि शायद अनिश्चित है।इसी बात को ध्यान में रखकर सन् 1896 के मध्य में वह पत्नी कस्तूरबा गांधी को अपने साथ अफ्रीका ले जाने के लिए भारत आये ताकि अफ्रीकी भारतीयों के दुख दूर करने के लिए एक ऐसा संघर्ष किया जा सके जो उनके संकटों को उनकी अंतिम परिणति तक ले जाकर स्थाई सुकून दिला सके।गांधी जी स्वयं को भारत की स्वतंत्रता के भावी संघर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के लिए संघर्षरत करके तपा भी लेना चाहते थे।
फिर से दक्षिण अफ्रीका में
राजकोट पहुंचकर गांधी जी ने भावी संघर्ष के लिए चिन्तन किया एवं रणनीति बनाई।वे संघर्ष को व्यवस्थित ढंग से करना चाहते थे।इसलिए राजकोट में उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्या का विश्लेषण करते हुए एक पुस्तक लिखी जिसे प्रकाशित करवाकर देश के प्रबुद्ध लोगों को भेंट करने के साथ साथ प्रमुख समाचार पत्रों में भी प्रकाशनार्थ उसकी प्रतियाँ भेजी। तभी राजकोट शहर में  प्लेग का प्रकोप फैल गया जिसने शीघ्र ही महामारी का रूप ले लिया।
यह गांधी जी के लिए मानवसेवा का आदर्श प्रस्तुत करने का एक ऐसा अवसर था जिसने उनकी छवि में एक सकारात्मक परिवर्तन किया।गांधी जी ने प्लेग पीड़ितों के लिए स्वयंसेवक बनकर सेवाएं अर्पित की।गांधी जी ने हजारों वर्षों से दबे कुचले दलित समाज के लोगों के बीच रहकर सेवा एवं संवाद के माध्यम से सामाजिक दूरियां छुआछूत एवं भेदभाव दूर करने के लिए भारतीयों को एक सकारात्मक संदेश दिया।गांधी जी की लोकप्रियता भी बढ़ने लगी।
बदरुद्दीन तैय्यब, सर फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बेनर्जी, लोकमान्य जिलक, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं से गांधी जी ने भेंट की जिसका उनके स्वयं के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। गांधी जी ने इन सभी राष्ट्रीय नेताओं को दक्षिण अफ्रीकी प्रवासी भारतीयों की समस्याओं से अवगत करवा।बम्बई में फिरोजशाह मेहता की अध्यक्षता में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों की समस्याएं से राष्ट्रीय नेतृत्व को अवगत कराया।ऐसा ही कार्यक्रम कोलकाता में भी तय था लेकिन गांधी जी उसमे उपस्थित होते उससे पहले ही दक्षिण अफ्रीका से एक आपात तार उंन्हे प्राप्त हुआ और वे फिर दौड़ चले दक्षिण अफ्रीका की और वहां प्रवासी भारतीयों को किया गया अपना वायदा निभाने के लिए।

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

गांधी अफ्रीका में

दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी का मुकदमा लड़ने यदि मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका नही जाते तो संभवतः भारत को "महात्मा" के रूप में एक गांधी नही मिलता और दुनिया गांधीवाद के शांतिवादी दर्शन से वंचित रह जाती।जिस "सत्याग्रह" पद्दत्ति को गांधी जी ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रयोग करके "सूर्यास्त रहित" साम्राज्य की चूलें हिला दी,भारत उससे भी सम्भवतः वंचित रह जाता।
अफ्रीका पहुंचे मोहनदास:

अपनी कंपनी का मुकदमा लड़ने के लिए भारतीय मूल के दक्षिण अफ्रीकी नागरिक सेठ अब्दुल्ला ने 1893 में गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका बुलाया था। उनका बुलावा स्वीकार करके मोहनदास दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हो गए।
गांधी जी लंबी जलयात्रा करके दक्षिण अफ्रीका के डरबन नगर में पहुंचे। डरबन से उन्होंने प्रिटोरिया गमन के लिए 7 जून 1893 को ट्रेन पकड़ी।उन्होंने प्रथम श्रेणी यात्रा करने के लिए टिकट खरीदा था।लेकिन पीटरमारिट्जबर्ग पहुंचने पर मोहनदास को सहयात्रियों द्वारा, जिनमे प्रायः सभी ब्रिटिश नागरिक थे, रेल के तृतीय श्रेणी यान में जाने के लिए कहा गया। गांधी जी ने अपना प्रथम श्रेणी रेल टिकट सह-यात्रियों को दिखाते हुए, तृतीय श्रेणी रेल यान में जाने से स्पष्ट मना कर दिया गया।इसके बाद जो मोहनदास के साथ घटित हुई उसने उस इकहरे बदन वाले मोहनदास करमचंद गांधी को "महात्मा गांधी" बनने वाले मार्ग पर अग्रसर कर दिया।सह-यात्रियों ने मोहनदास को प्रथम श्रेणी रेल यान से जबरन धक्का देकर ट्रेन से नीचे गिरा दिया।यह घटना विश्व इतिहास में ऐतिहासिक घटना के रूप में दर्ज होने वाली थी,विश्व इतिहास को इसका साक्षी बनना था।इस घटना ने मोहनदास को अंदर तक झकझोर दिया।उन्हें अंदर तक आंदोलित कर दिया।खुद को सहज करते हुए मोहनदास खड़े हुए और कड़ाके की  ठंड में  पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन के वेटिंग रूम में पहुंचे।गांधी जी का अंतर्मन इस अन्यायपूर्ण घटना को लेकर उद्वेलित था।पूरी रात वह सो नही सके। वह रातभर  सोचते रहे कि क्या दक्षिण अफ़्रीका में मैं यह भेदभाव सहन कर पाऊंगा? क्या मुझे भारत वापस लौट जाना चाहिए? लेकिन क्या भारत में भी मुझे यही सब नही सहन करना पड़ेगा? क्या  दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ मुझे संघर्ष करना चाहिए?
सुबह होने तक बीती रात 7 जून 1893 को दक्षिण अफ्रीका के पीटरमारिट्जबर्ग में हुए अपमान जनक व्यवहार ने एक नए गांधी को जन्म दिया जो दुनिया को एक नई संघर्ष पद्दत्ति "सत्याग्रह" एवं इसकी शक्ति से परिचित कराने वाला था।दक्षिण अफ्रीका के इस शहर से ही गांधी जी के सत्याग्रह की नींव पड़ चुकी थी। उस समय स्वयं मोहनदास करम चंद गांधी नहीं जानते थे कि उनका यही हथियार कभी भारत की आजादी का रास्ता मार्ग प्रशस्त करके अंग्रेजी साम्राज्य का सूर्यास्त कर देगा!
अपमान के कई घूंट:
दक्षिण अफ्रीका में भेदभाव सहन करने की पीटरमारिट्जबर्ग की घटना गांधी जी के अफ्रीकी प्रवास की ऐसी पहली और अकेली घटना नही थी जब उनको अपमान और भेदभाव सहन करना पड़ा हो। इसके अतिरिक्त भी गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका में कई बार भेदभाव का सामना करना पड़ा था। एक बार उन्हें घोड़ागाड़ी में अंग्रेज यात्री के लिए सीट नहीं छोड़ने पर पूरी यात्रा पायदान पर बैठकर करने के अलावा घोड़ा गाड़ी के चालक से मार भी खानी पड़ी थीI।
एक मुकदमा लड़ने गए मोहनदास अगले लगभग 21 वर्षो तक दक्षिण अफ्रीका में ही रह जाएंगे यह कभी खुद उन्होंने स्वप्न में भी नही सोचा था।गांधी जी प्रवासी भारतीयों के बीच उनकी निस्वार्थ सेवा एवं व्यवहार के कारण बेहद लोकप्रिय हो गए।दक्षिण अफ्रीकी प्रवासी भारतीयों ने भेदभाव के विरुध्द संघर्ष में गांधी जी को अपना नेतृत्व सौंप दिया।अफ्रीका में उतपन्न परिस्थितियों ने गांधी जी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि अभी उनका कार्य पूरा नही हुआ है।और दक्षिण अफ्रीका में उनके प्रवास की अवधि शायद अनिश्चित है।इसी बात को ध्यान में रखकर सन् 1896 के मध्य में वह पत्नी कस्तूरबा गांधी लो को  साथ नाताल ले जाने के उद्देश से भारत आये। अपनी इस यात्रा के दौरान उनका लक्ष्य दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के लिए देश में यथाशक्ति समर्थन पाना और जनमत तैयार करना भी था।

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

इस्लाम:खोखला है वैश्विक भ्रातत्ववाद का नारा

इस्लाम: खोखला है वैश्विक भ्रातत्ववाद नारा
                             @ सुनील सत्यम
शिया
शिया मुसलमानों का एक पंथ है जिसकी मान्यताएं सुन्नी मुसलमानों से काफी अलग है।शिया सुन्नियों में पैगम्बर मुहम्मद साहब की मौत के बाद से ही नफरत की जंग चली आ रही है जिसका निकट भविष्य में कोई अंत दिखाई नही देता है। शियाओं के मज़हबी क़ानून सुन्नियों से लगभग भिन्न हैं।मज़हबी मामलों में शिया मुस्लिम काफी उदार और सेकुलर ख्याल के है। शिया पंथी पैग़म्बर मोहम्मद के बाद ख़लीफ़ात की बजाय इमाम नियुक्त किए जाने के समर्थक हैं।
उनका मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने मौत से पहले अपने दामाद हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। लेकिन धोखे से उनकी जगह हज़रत अबू-बकर को कुछ लोगों ने षडयंत्र के तहत मुस्लिमों का नेता घोषित कर दिया।
शिया मुसलमान पैगम्बर की मौत  के बाद बने पहले तीन ख़लीफ़ाओं को अपना नेता नहीं मानते बल्कि उन्हें ग़ासिब कहते हैं। ग़ासिब अरबी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ हड़पने वाला होता है।
शियाओं का विश्वास है कि जैसे अल्लाह ने मोहम्मद साहब को अपना पैग़म्बर बनाकर भेजा था उसी तरह से उनके दामाद अली को भी अल्लाह ने ही इमाम या नबी नियुक्त किया था और उनके बाद उन्हीं की संतानों से इमाम पैदा होते रहे।
कालांतर में शियाओं का भी कई पंथों में विभाजन हो गया।प्रमुख शिया पन्थ इस प्रकार हैं:
इस्ना अशरी
शियाओं का  सबसे बड़ा पन्थ इस्ना अशरी यानी बारह इमामों को मानने वाला समूह है। बहुसंख्यक शिया इसी पंथ के अनुयायी है। इस्ना अशरी समुदाय का कलमा भी सुन्नियों के कलमें से बिल्कुल अलग है।
उनके पहले इमाम हज़रत अली हैं और अंतिम यानी बारहवें इमाम ज़माना यानी इमाम महदी हैं। वो अल्लाह, क़ुरान और हदीस को तो मानते हैं परन्तु केवल उन्हीं हदीसों को सही मानते हैं जो उनके इमामों के माध्यम से आए हैं।
अली के उपदेश पर आधारित किताब "नहजुल बलाग़ा" और "अलकाफ़ि" इस्ना अशरी शियाओं की महत्वपूर्ण धार्मिक पुस्तक हैं यह संप्रदाय इस्लामिक धार्मिक क़ानून के अनुसार जाफ़रिया में विश्वास रखता है। ईरान, इराक़, भारत और पाकिस्तान सहित दुनिया के अधिकांश देशों में इस्ना अशरी शिया समुदाय का ही बाहुल्य है।

ज़ैदिया

शियाओं का दूसरा सबसे बड़ा सम्प्रदाय ज़ैदिया है, यह बारह के स्थान पर मात्र पांच इमामों को ही मान्यता देता है। जिनमे पहले चार इमाम वही है जिन्हें इस्ना अशरी शियों भी मानते हैं। लेकिन इनके पांचवें इमाम हुसैन (हज़रत अली के बेटे) के पोते ज़ैद बिन अली हैं।ज़ैद के नाम पर ही यह सम्प्रदाय ज़ैदिया नाम से जाना जाता है।
ज़ैद बिन अली द्वारा लिखित पुस्तक 'मजमऊल फ़िक़ह' ज़ैदिया सम्प्रदाय के इस्लामिक कानूनों का आधार है। मध्य पूर्व के यमन में रहने वाले "हौसी" लोग ज़ैदिया शिया मुसलमान हैं.

इस्माइली शिया
यह शिया सम्प्रदाय सात इमामों को मान्यता देता है।इनके सातवें इमाम मोहम्मद बिन इस्माइल हैं जिनके नाम पर ये इस्माइली कहलाते हैं। इमाम जाफ़र सादिक़ के बाद उनके बड़े बेटे इस्माईल बिन जाफ़र इमाम होंगे अथवा दूसरे बेटे मूसा काज़िम, इस विषय को लेकर इनमें इस्ना अशरी शियाओं के साथ मतभेद है।
इस्ना अशरी सम्प्रदाय ने जाफर ईमाम के दूसरे बेटे मूसा काज़िम को इमाम माना है। इस्माइल बिन जाफ़र को इस्माइली शिया, अपना सातवाँ ईमाम मानते है।उनकी फ़िक़ह और कुछ मान्यताएं भी इस्ना अशरी शियों से काफी भिन्न हैं।
दाऊदी बोहरा
बोहरा भी शियाओं का एक पंथ है।यह दाऊदी बोहरा कहलाता है।अन्य शिया मुसलमान पंथों के विपरीत यह पंथ 21 इमामों को मान्यता देता है।इस्माइली शिया फ़िक़ह को मानता है और इसी विश्वास पर क़ायम है।
इनके अंतिम इमाम तैयब अबुल क़ासिम थे जिसके बाद आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा शुरू की गई। इन गुरुओं को दाई कहा जाता है।इस पंथ के 52वें दाई सैय्यदना बुरहानुद्दीन रब्बानी थे। 2014 में रब्बानी के निधन के बाद से उनके दो बेटों में उत्तराधिकार को लेकर विवाद हो गया जो अब अदालत में विचाराधीन है.

बोहरा शिया भारत के पश्चिमी क्षेत्र ख़ासकर गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं जबकि पाकिस्तान और यमन में भी इनकी उपस्थिति मिलती है।बोहरा  सफल व्यापारी समुदाय है,कुछ बोहरा सुन्नी भी हैं।
खोजा
खोजा गुजरात का एक व्यापारी समुदाय है जिसने कुछ सदी पहले इस्लाम स्वीकार किया था. इस समुदाय के लोग अधिकांश शिया है।भारत विभाजन का जनक मुहम्मद अली जिन्नाह एक खोजा शिया मुस्लिम था जिसने सुन्नियों पर राज किया।
भारतीय मुस्लिम समाज को आधुनिक शिक्षा से हटाकर मदरसा शिक्षा की तरफ मोड़ने के लिए जिन्नाह के अपने स्वार्थ थे।जिन्नाह भारतीय मुसलमानों को कट्टर बनाये रखना चाहता था क्योंकि वह खुद शिया था।आम मुस्लिम उसकी असलियत जानकर कहीं उसका नेतृत्व स्वीकार करने से इनकार न कर दे इसलिए वह भारतीय मुसलमानों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से काटकर उंन्हे कट्टर बनाने का हिमायती था।और ऊनी चाल में वह सफल भी हुआ।दुनिया के सबसे बड़े इस्लामी देश इंडोनेशिया में मुस्लिम आज भी भगवान श्रीराम को अपना पूर्वज मानता है लेकिन भारत के मुसलमानों को इस सांस्कृतिक अलगाव के लिए जिन्नाह ने ही पृष्ठभूमि तैयार की थी।
ज़्यादातर खोजा इस्माइली शिया के धार्मिक क़ानून का पालन करते हैं लेकिन एक बड़ी संख्या में खोजा इस्ना अशरी शियाओं की भी है।
लेकिन कुछ खोजे सुन्नी इस्लाम को भी मानते हैं। इस समुदाय का बड़ा वर्ग गुजरात और महाराष्ट्र में पाया जाता है। पूर्वी अफ्रीकी देशों में भी ये बसे हुए हैं।
नुशैरी अथवा अलावी
शियाओं का यह संप्रदाय सीरिया और मध्य पूर्व के विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है। इसे अलावी अथवा " अल्वी" के नाम से भी जाना जाता है। सीरिया में इसे मानने वाले ज़्यादातर शिया हैं और देश के राष्ट्रपति बशर अल असद का संबंध इसी समुदाय से है।
इस समुदाय का मानना है कि अली वास्तव में भगवान के अवतार के रूप में दुनिया में आए थे  उनकी फ़िक़ह इस्ना अशरी में है लेकिन विश्वासों में मतभेद है। नुसैरी पुर्नजन्म में भी विश्वास रखते हैं और ईसाइयों की कुछ रस्में भी उनके धर्म का हिस्सा हैं।
इन सबके अलावा भी इस्लाम में कई छोटे छोटे पंथ पाए जाते हैं।एक पंथ दूसरे को काफिर अथवा मुनाफिक मानता है और उसका सम्पूर्ण सफाया करके ख़ुद को मुहम्मद का सच्चा समर्थक साबित करना चाहता है।सुन्नी मुस्लिम, शिया सम्प्रदाय को काफिर मानकर उनका उन्मूलन कर देना चाहते हैं।दुनिया के किसी भी अन्य मज़हब से ज्यादा धार्मिक विभेद एवं कटुता इस्लाम के अनुयायियों में है जो एक दूसरे सम्प्रदाय से बेइंतहा नफरत करते हैं।

अफ्रीका में सोमालिया,नाइजीरिया,इथोपिया,सूडान आदि देशों से लेकर सीरिया,ईरान,इराक,लीबिया,पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान तक इस्लामी फिरकों में नफरत की अंतहीन जंग जारी है जिसमे गत 10 वर्षों में सोलह लाख से ज्यादा मुसलमानों की मुसलमानों द्वारा हत्या की जा चुकी है।वैश्विक भ्रातत्ववाद का इस्लामी नारा नफरत की जंग में खोखला साबित होता जा रहा है।
(प्रस्तुत लेख में लेखक की निजिराय है)