दास्ताने चिनार: कल आज और कल
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कश्मीर: भारत का अविभाज्य अंग
@ सुनील सत्यम
जिस कश्मीर के बारे में मुगलिया बेगम कह उठी थी कि धरती पर
यदि कहीं स्वर्ग है तो यहीं है,यहीं है, आज वह कुछ ऐतिहासिक भूलों के कारण खूनी आंसू बहा रहा है।
26 अक्टूबर 1947 को विधिवत रूप से कश्मीर के
भारत में विलय के बावजूद भारत के अतिरिक्त अवैध रूप से कश्मीर पर चीन एवं
पाकिस्तान का भी कब्जा है।जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है, तो "पाक अधिक्रान्त
जम्मू एवं कश्मीर"(पी ओ जे के) और गिलगित बाल्टिस्तान पर
पाकिस्तान का अवैध कब्जा है। अक्साईचिन पर चीन का अवैध कब्जा है। पाकिस्तान द्वारा
अधिक्रान्त जम्मू कश्मीर में मुख्यतः मीरपुर,मुजफ्फराबाद और
गिलगिट-बाल्टिस्तान का क्षेत्र आता है जिसे कुटिल रणनीति के तहत पाकिस्तान द्वारा
दो हिस्सों में बांट दिया गया है।उत्तरी क्षेत्र-गिलगिट बाल्टिस्तान एवं कथित आज़ाद
कश्मीर जिसमे मीरपुर और मुजफ्फराबाद का क्षेत्र शामिल है जहां के नागरिक परतंत्र
एवं पाशविक जीवन जीने को अभिशप्त हैं।
पाक
अधिक्रान्त जम्मू एवं काश्मीर"(पी ओ जे के) का कुल क्षेत्रफल लगभग 13 हजार वर्ग किलोमीटर है एवं
जनसँख्या लगभग 30 लाख हैं। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में अक्साई चिन शामिल
नहीं है। यह क्षेत्र महाराजा हरिसिंह के समय में कश्मीर का हिस्सा था लेकिन 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध
के बाद कश्मीर के उत्तर-पूर्व में चीन से सटे क्षेत्र अक्साई चिन पर चीन ने बलात
कब्जा कर लिया। भारत ने जम्मू-कश्मीर राज्य विधानसभा में पाक अधिक्रान्त जम्मू एवं
कश्मीर (पीओजेके) के लिए 25 सीटें और संसद में 7 सीटें सुरक्षित रखी हुई हैं।
इस
अनाधिकृत जम्मू कश्मीर को लेकर पाकिस्तान फॉक्स-पालिसी (लोमड़ी-नीति) का अनुसरण कर
रहा है। एक और तो वह इसे आजाद कश्मीर कहता है तो दूसरी ओर यहां के प्रशासन और
राजनीति में सीधा दखल करके यहां के सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ने में लगा है।
पाकिस्तान ने यहां पर बाहरी लोगों को बसाकर क्षेत्र के जनांकिय संतुलन को बिगाड़ने
का कोई अवसर नही गंवाया है। यहां का शासन मूलत: इस्लामाबाद से सीधे तौर पर संचालित
होता है।
49 सीटों
वाली पीओजेके विधानसभा के लिए 1974 से ही वहाँ छद्म चुनाव कराए जा रहे हैं और दिखावे के लिए
प्रधानमंत्री भी चुना जाता है। जिसे दुनिया का कोई भी देश मान्यता नही देता है।
पाकिस्तान
इसे आजाद कश्मीर के रुप मे प्रचारित करता है जबकि पाकिस्तान पर पीओजेके की
निर्भरता, किसी से
छुपी हुई नहीं है। गिलगिट व बाल्टिस्तान को पहले पाकिस्तान में उत्तरी क्षेत्र कहा
जाता था और जिसका प्रशासन संघीय सरकार के अंतर्गत एक मंत्रालय चलाता था।
2009 में
पाकिस्तान की संघीय सरकार ने यहां एक स्वायत्त प्रांतीय व्यवस्था प्रारम्भ कर दी
जिसके अंतर्गत मुख्यमंत्री सरकार चलाता है। यहाँ छद्म रूप से चयनित 24 लोंगो की परिषद है जिसके पास
कोई विशेष अधिकार नही है।
विवादित
गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र को पाकिस्तान अपना पांचवां प्रांत घोषित करने का
षड्यंत्र कर रहा है। पाकिस्तान यह कदम चीन को खुश करने के लिए उठाना चाहता है
क्योंकि चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर यहां से होकर गुजरता है। इस क्षेत्र की
संवैधानिक स्थिति में किसी भी प्रकार का बदलाव भारत के लिए सहनीय नही है क्योंकि
यह क्षेत्र भारत का हिस्सा है।
खुद यहां
की जनता पाकिस्तान की इस सोच के विरोध में सड़कों पर उतर आई है।
शिया
बाहुल्य इस क्षेत्र में पाकिस्तानी फौज आये दिन बर्बरता पूर्वक अत्याचार करती
है।शिया आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।यहाँ से अनेक लोग पाकिस्तानी अत्याचारों
से पीड़ित होकर जम्मू एवं कश्मीर में आकर बस गए हैं और अभी भी उनका आना जारी है।
पीओजेके, मूल कश्मीर का वह भाग है, जिसे पाकिस्तान ने 1947 में आक्रमण करके हथिया लिया था।
भारत और पाकिस्तान के बीच यही विवादित क्षेत्र है। इसकी सीमाएं पाकिस्तानी पंजाब
एवं उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत से पश्चिम में, उत्तर पश्चिम में अफ़गानिस्तान
के वाखान गलियारे से, चीन के
ज़िन्जियांग उयघूर स्वायत्त क्षेत्र से उत्तर और भारतीय कश्मीर से पूर्व में लगती
हैं। इस क्षेत्र के पूर्व कश्मीर राज्य के कुछ भाग, ट्रांस-काराकोरम ट्रैक्ट को
पाकिस्तान द्वारा चीन को अवैध रुप से उपहार में दे दिया गया था व शेष क्षेत्र को
दो भागों में बांट दिया गया था: उत्तरी क्षेत्र एवं आजाद कश्मीर। इस विषय पर
पाकिस्तान और भारत के बीच 1947 में युद्ध भी हुआ था। भारत द्वारा इस क्षेत्र को पाक अधिकृत कश्मीर
(पी.ओ.जे.के) कहा जाता है।संयुक्त राष्ट्र सहित अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,एम.एस.एफ़,एवं रेड क्रॉस द्वारा इस
क्षेत्र को पाक-अधिकृत कश्मीर ही कहा जाता है।
महाराजा हरि सिंह, ने भारत के विलय प्रस्ताव को
स्वीकार करते हुए विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इस विलय समझौते के बाद भारत ने
पाकिस्तान के कबायली आक्रमण से जम्मू कश्मीर की रक्षा के लिए सेना को घाटी में
भेजा था। महाराजा हरि सिंह से हुई संधि के परिणामस्वरूप पूरे कश्मीर राज्य पर भारत
का अधिकार स्वयंसिद्ध है। फलतः सम्पूर्ण कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है।
गिल्गित
बाल्टिस्तान में काराकोरम राजमार्ग पर हजारों की संख्या में पाषाण-कला एवं
पेट्रोग्लिफ के शिलाओं पर उत्कीर्ण कलाकृतियां मिलती हैं। इनमें से अधिकांश
कलाकृतियां हुन्ज़ा एवं शातियाल के बीच दस प्रमुख स्थलों में स्थित हैं। ये
कलाकृतियां इस मार्ग से निकलने वाले आक्रमणकारियों, व्यापारियों एवं तीर्थयात्रियों
एवं स्थानीय निवासियों द्वारा उत्कीर्ण की गई थी।इनकी अवधि ई.पू. 5000 से ई.पू. 1000 वर्ष के मध्य मानी जाती है। साधारण पशुओं, तिकोनी मानव आकृतियां हैं, प्रमुख रूप से उत्कीर्ण किये गए
हैं। इनमें आखेट के दृश्य हैं, जहां पशुऒं का आकार मनुष्यों से बहुत बड़ा दिखाया गया है। इन
कलाकृतियों को पाषाण-उपकरणों द्वारा तराश कर एक मोटी पैटिना की पर्त से ढंक दिया
गया था, जिससे
इनकी आयु का ज्ञान होता है। इस क्षेत्र के इतिहास की जानकारी पाकिस्तान के उत्तरी
क्षेत्रों से कई शिलालेखों से एकत्रित कर पुरातत्त्ववेत्ता कार्ल जेटमार ने अपनी
पुस्तक "रॉक कार्विंग्स एण्ड इन्स्क्रिप्शन्स इन द नॉर्दर्न एरियाज़ ऑफ
पाकिस्तान" में एवं बाद में एक अन्य पुस्तक "बिटवीन गांधार एण्ड द सिल्क
रोड्स - रॉक कार्विंग्स अलॉन्ग द काराकोरम हाइवे" में लिखे हैं।
1947 से 1970 के मध्य पाक-अधिकृत जम्मू एवं
कश्मीर का पूर्ण क्षेत्र दिखावे के रूप में प्रशासित होता रहा। इसके अतिरिक्त
हुन्ज़ा-गिलगित के एक भाग, रक्सम
एवं बाल्टिस्तान की शक्स्गम घाटी क्षेत्र को, पाकिस्तान द्वारा 1963 में चीन को अवैध रूप से सौंप
दिया गया था। इस क्षेत्र को सीडेड एरिया या ट्रांस काराकोरम ट्रैक्ट कहते हैं।
1970 के बाद
पाक अधिकृत जम्मू एवं कश्मीर को पाकिस्तान ने दो भागों में बांटा दिया ताकि विवाद
निपटान की स्थिति में उसे कुछ न कुछ हिस्सा प्राप्त हो सके।
1-कथित
आजाद कश्मीर
2-उत्तरी
क्षेत्र।
गिल्गित
क्षेत्र महाराजा हरिसिंह द्वारा ब्रिटिश सरकार को पट्टे पर दिया गया था।
बाल्टिस्तान लद्दाख का पश्चिम हिस्सा था, जिस पर पाकिस्तान ने 1948 में ही बलात कब्जा कर लिया था।
ये क्षेत्र विवादित जम्मू एवं कश्मीर क्षेत्र का भाग है।
अक्साई
चिन
अक्साई
चिन नामक क्षेत्र जो पूर्व जम्मू एवं कश्मीर राज्य का भाग था, पाक अधिकृत कश्मीर में नहीं आता
है। ये 1962 में चीन ने हड़प लिया था। जम्मू एवं कश्मीर को अक्साई चिन क्षेत्र
से अलग करने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा कहलाती है।
1947 में
पाकिस्तान द्वारा कबायली आक्रमण के समय भारत सरकार पाकिस्तान द्वारा यथास्थित
समझौते का अतिक्रमण करके कश्मीर पर किये गए आक्रमण एवं कश्मीरी नागरिकों पर किये
गए जुल्मों के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ में गई थी।जहां भारत मे जम्मू कश्मीर के
अधिमिलन का कोई प्रश्न नही उठाया गया था।भारत ने स्पष्ट कर दिया था भारत मे जम्मू
कश्मीर का अधिमिलन पूर्णतः संवैधानिक एवं अविवादित है एवं उस ओर चर्चा के लिए
संयुक्त राष्ट्र संघ उचित मंच नही है।
1.
पूर्णतः संवैधानिक था
कश्मीर विलय।
जम्मू कश्मीर बार एसोसिएशन ने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को
विवादास्पद एवं रहस्यमयी बताया है जो अपने आप में हास्यास्पद है।सुप्रीम कोर्ट ने एक
याचिका की सुनवाई से सम्बंधित मामले की सुनवाई के समय बार एसोसिएशन द्वारा दाखिल
हलफनामे पर हैरानी जताई है।
कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है और इसका विधिवत रूप से 26 अक्टूबर 1947 को भारत
में विलय कर दिया गया था।विलय पत्र पर कश्मीर के महाराजा हरीसिंह एवं तत्कालीन
ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन के द्वारा हस्ताक्षर किए गए
हैं।महाराजा हरीसिंह ने बिना किसी भय एवं दबाव के कश्मीर अधिमिलन पत्र पर
हस्ताक्षर किए थे। अधिमिलन पत्र पर तत्कालीन गवर्नर जनरल के
हस्ताक्षर होने के साथ ही जम्मू एवं कश्मीर की सम्पूर्ण रियासत संवैधानिक रूप से
भारत का अविभाज्य अंग बन गई थी।इसके फलस्वरूप गिलगिट, बाल्टिस्तान, शक्सगाम एवं अक्साइचिन तक
भारत की सीमाओं एवं प्रभुता का विस्तार हो गया था।
जम्मू एवं कश्मीर के अधिमिलन की प्रक्रिया वस्तुतः 26 अक्टूबर 1947 से काफी
पहले प्रारम्भ हो चुकी थी। भारत सरकार अधिनियम 1935 के साथ ही वास्तव में देशी
रियासतों के लिए एक प्रारूप निर्धारित किया गया था जिसमे रियासतों को किसी प्रकार
के संशोधन की अनुमति नही थी।यह अधिनियम के सेक्सन सात में दिए गया है। इस प्रारूप
में देशों रियासतों को अपने राज्य का नाम,हस्ताक्षर एवं मुहर अंकित करके, संबंधित राज्य के प्रतिरक्षा,विदेश एवं संचार सम्बन्धी समस्त अधिकार के लिए भारतीय डोमिनियन में
अधिमिलन की स्वीकृति देनी थी। इस प्रारूप को विधिवत भरकर अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर
के द्वारा जम्मू कश्मीर के महाराजा हरीसिंह द्वारा भी स्वीकार्यता दी गई थी।
ब्रिटिश संसद ने 18
जुलाई को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पारित किया था।इसमें भारत
डोमिनियन को ब्रिटिश भारत सरकार का उत्तराधिकारी बनाया गया था। इस लिहाज से तो
प्रत्येक ऐसी रियासत जो भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी के भी साथ सम्मिलन का
विकल्प न चुनती, वह
नियमतः एवं तकनीकी रूप से भारत का ही हिस्सा होती। भारत सरकार अधिनियम 1947 के
अंतर्गत भारत एवं पाकिस्तान दो डोमिनियन का निर्माण किया जाना था तथा देशी
रियासतों से ब्रिटिश सरकार की सर्वोच्चता समाप्त हो जानी थी।अधिनियम में रियासतों
के समक्ष दोनों डोमिनियन में से किसी एक में शामिल होने के अलावा स्वतंत्रता का
तीसरा विकल्प नही था। इस अधिनियम के पैरा पांच में स्पष्ट किया गया था कि "
ये रियासतें ब्रिटिश भारत की उत्तराधिकारी सरकार या सरकारों के साथ संघीय संबंध
स्थापित करेंगी और ऐसा न हो सकने की स्थिति में रियासतें विशेष राजनैतिक
व्यवस्था ब्रिटिश भारत की उत्तराधिकारी सरकार या सरकारों के साथ स्थापित
करेंगी।" 25 जुलाई 1947 को देशी
राज्यों के शासकों के साथ हुई बैठक में भी लार्ड माउंटबेटन ने बिल्कुल स्पष्ट कर
दिया था कि देशी रियासतें भारत अथवा पाकिस्तान के साथ जुड़ने का निर्णय लेने के लिए
स्वतंत्र हैं।लेकिन अधिकांश के पास भौगोलिक सुविधा के अनुसार भारत से जुड़ना ही
बेहतर होगा।अपने किसी भाषण अथवा प्रस्ताव में लार्ड माउंटबेटन ने किसी रियासत के
पूर्ण रूप से स्वतंत्र अर्थात दोनों नवगठित देशों में से किसी से भी न जुड़ने के
अधिकार का कोई जिक्र नही किया था।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अधिमिलन पत्र पर महाराजा हरिसिंह द्वारा
हस्ताक्षर करने के साथ ही जम्मू एवं कश्मीर को भारत मे अधिमिलन की प्रक्रिया अन्य
रियासतों की भांति पूर्ण हो गई थी। 15 अगस्त 1947 को
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के अंतर्गत जम्मू एवं कश्मीर रियासत का ब्रिटिश
राजसत्ता से संवैधानिक सम्बन्ध विच्छेद हो गया था। रियासत के भविष्य का निर्धारण
अब महाराजा हरिसिंह को करना था। हरीसिंह स्वाभाविक रूप से भारत में अधिमिलन चाहते
थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनके सामने शेख को सत्ता में
भागीदार करने के शर्त थोप दी, जिसके
लिए महाराजा तैयार नही थे।अधिमिलन के विषय में नेहरू जी का रवैया असहयोगात्मक
था।अतः इस दुविधाजनक स्थिति में भारत एवं पाकिस्तान के समक्ष कश्मीर के विषय में
"यथास्थिति समझौता" करने का प्रस्ताव ब्रिटिश सरकार द्वारा किया
गया।पाकिस्तान द्वारा एक और जहां टेलीग्राम द्वारा यथास्थिति समझौता करने की
स्वीकृति दे दी गई वहीं दूसरी और कश्मीर की पीठ में छुरा घोंपते हुए उस पर कबायली
आक्रमण करवाकर कश्मीर को हड़पने का प्रयास भी किया गया।उधर भारत द्वारा यथास्थिति
समझौते के संदर्भ में बात करने के लिए जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहर चंद
महाजन को दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा गया। लेकिन कबायली आक्रमण की स्थिति से उपजी
स्थितियों में उनका दिल्ली जाना सम्भव नही हो सका। वैसे बता दूं कि यथास्थिति
समझौते का जम्मू कश्मीर के भारत में अधिमिलन से कोई संबंध नही था।पाकिस्तान ने
यथास्थिति समझौते का उपयोग अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की आँखों में धूल झौंककर कश्मीर
को हड़पने के लिए किया।इतना ही नही यथास्थिति समझौते को तोड़ते हुए पाकिस्तान द्वारा
कबायली आक्रमण करवाकर जम्मू कश्मीर एवं सियालकोट के मध्य न केवल अनावश्यक रूप से
रेल सेवा रोक दी वरन पेट्रोल आदि आवश्यक पदार्थों की आपूर्ति भी रोक दी जो जम्मू
कश्मीर एवं पाकिस्तान के मध्य हुए यथास्थिति समझौते की आवश्यक शर्त थी।
कश्मीर पर पाकिस्तान के बढ़ते कबायली आक्रमण की परिस्थितियों में
जम्मू कश्मीर ने 24 अक्टूबर
को भारत से सैन्य मदद की मांग की और दो दिन बाद महाराजा हरिसिंह द्वारा भारत के
साथ अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर करके दस्तावेज दिल्ली भिजवा दिया गया,जहां अगले दिन गवर्नर जनरल
लार्ड माउंटबेटन ने इस पर अपनी स्वीकृति देते हुए हस्ताक्षर किए।इस प्रकार भारतीय
संविधान की अनुसूची एक में जम्मू एवं कश्मीर भारत का पंद्रहवाँ राज्य बन गया। भारत
की संविधान सभा में भी जम्मू कश्मीर से चार प्रतिनिधि संविधान निर्माण प्रक्रिया
में शामिल रहे हैं। ऐसे
में जम्मू कश्मीर के भारत में संवैधानिक रूप से हुए विलय पर सवाल खड़े करके विलय को
विवादास्पद एवं रहस्यमयी बताना केवल परोक्ष रूप से पाकिस्तानी एजेंडा चलाने के
अतिरिक्त कुछ नही है।
2
अक्सर जम्मू कश्मीर समस्या को लेकर देश में तत्कालीन
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नीतियों की आलोचना होती रही है।लेकिन क्या हमने 26 अक्टूबर 1947 को संवैधानिक रूप से भारत में पूर्णतः अधिमिलन हो जाने वाले इस प्रान्त को
लेकर अंग्रेजों एवं अमरीका की तत्कालीन भूराजनीतिक प्रमेयों के संदर्भ में समस्या
को समझने का प्रयास किया है?
1940 के दशक में
ब्रिटेन एवं अमरीका में अंतरार्ष्ट्रीय संबंधों एवं साम्राज्यवादी हितों की रक्षा
के लिए भूराजनीतिक सिद्धांतों की धूम थी।साम्राज्यवाद एवं पूंजीवाद समस्त विश्व के
संसाधनों पर नियंत्रण के लिए लालायित था।जब तक समुद्री सैन्य बल शक्ति का एक मात्र
स्रौत था तब तक ब्रिटेन अपने भूगोलवेत्ता मेकिंडर द्वारा प्रतिपादित हृदय स्थल सिद्धांत
का अनुपालन करके विश्वद्वीप पर शासन करने को उद्वेलित था।उसके साम्राज्यवाद के राह
का रोड़ा केवल साम्यवाद था।जिसका झंडाबरदार तत्कालीन सोवियत संघ था।मेकिंडर ने रूसी
क्षेत्र को अपने हृदयस्थल सिद्धांत में हृदयस्थल बताया है जिसे गहराई की सुरक्षा
प्राप्त थी।उसकी नजर में भविष्य की शक्ति रूस ही था जिससे ब्रिटिश उपनिवेशवाद को
खतरा था।अतः ब्रिटेन का ध्यान रूस की घेराबंदी पर ही ज्यादा था।अपने भारतीय
उपनिवेश की सुरक्षा के लिए ब्रिटेन रूस को लेकर सदैव सशंकित रहा।इसी चिंता के चलते
ही रूसी विस्तार को रोकने के लिए ब्रिटेन ने अमृतसर की सन्धि के तहत 1846 में कश्मीर ,जिसकी सीमाएं रूस,चीन एवं
तिब्बत से लगती थी,डोगरा महाराजा
गुलाब सिंह को सौंप दिया था।इसके पीछे रूस एवं भारतीय उपनिवेश के मध्य जम्मू
कश्मीर को एक बफर जोन के रुप में प्रयोग करने की ब्रिटिश रणनीति कार्य कर रही थी।अंततः
अंग्रेजों ने गुलाब सिंह को भी शंका भाव से देखते हुए गिलगिट क्षेत्र को 1935 महाराजा से 60 वर्षीय पट्टे पर ले लिया था।बीसवीं सदी के प्रथम चतुष्क में वायुशक्ति की
महत्ता सिध्द हो गई थी।प्रथम विश्व युध्द में वायुशक्ति ने महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई थी।इसके बाद डच नागरिक स्पाइकमेन ने रिमलैंड का भूराजनीतिक सिद्धांत
प्रतिपादित किया जिसके अनुसार जो रिमलैंड को नियंत्रित करता है वही विश्व राजनीति
को नियंत्रित करेगा।कश्मीर क्षेत्र इसी रिमलैंड के अंतर्गत शामिल था। द्वितीय विश्वयुद्ध ने यह तय कर दिया था कि अब
ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्यास्त बस कुछ समय की बात है।अपने उपनिवेशों में
उत्तर-उपनिवेश काल में अपने हित सुरक्षित रखने के लिए ब्रिटिश शासक प्रयत्नशील थे।
जिसकी पहली परिणति भारत विभाजन था।भारत का विभाजन रणनीतिक दृष्टि से पूर्वी एवं
पश्चिमी पाकिस्तान के रूप में इस प्रकार किया जाना था कि रिमलैंड पर भारत की आज़ादी
के बाद भी मध्य एशिया
एवं दक्षिण पूर्व एशिया में ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों को सुरक्षित रखा जा
सके।क्योंकि भारत इस कार्य के लिए अंग्रेजों के लिए लाभकारी नही था। अतः भविष्य
में साम्यवादी रूस एवं चीन की घेराबंदी के साथ साथ दक्षिण पूर्व एशिया में
कश्मीर-युक्त पाकिस्तान ब्रिटेन के लिए एक श्रेष्ठ मोहरा सिद्ध हो सकता था।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन में 1930 में नरेंद्र मंडल के अध्यक्ष के नाते कश्मीर के महाराजा हरिसिंह शामिल हुए
थे।जहां उन्होंने भारत को भारत के हाल पर छोड़ देने की बात कहकर अंग्रेजों का दिल
तोड़ा था।इसके बाद अंग्रेज महाराजा के प्रति सशंकित रहे। कैबिनेट मिशन के 1946 में भारत आगमन के साथ ही तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन को यह
जिम्मेदारी दी गई कि वह कश्मीर का पाकिस्तान में शामिल करवाना सुनिश्चित करें।इस
बात के लिए अंग्रेज उस समय और ज्यादा दुराग्रही हो गए जब पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत
के खान अब्दुल गफ्फार खान ने भारत विभाजन का विरोध कर दिया।इसके साथ ही बलोचिस्तान
के खान ने भी पाकिस्तान में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर नही किये थे।जम्मू कश्मीर
भारत का वह प्रान्त है जिसकी स्थल सीमाएं पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत से लगती
है।अंग्रेज इस बात से आशंकित थे कि कश्मीर के भारत में विलय का अर्थ होगा
पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत की स्वतंत्रता अथवा उसका कालांतर में भारत में विलय, क्योंकि खान अब्दुल गफ्फार खान के खुदाई खिदमतगारों
ने कभी भी भारत विभाजन को स्वीकार नही किया था। उन्होंने विभाजन के लिए
पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में होने वाले जनमत संग्रह का भी विरोध किया था।यदि
पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत भारत में शामिल हो जाता तो बलोचिस्तान का भी भारत में
अधिमिलन अथवा आज़ाद होना तय था। ऐसे प्रमाण हैं कि कलात के खान ने भी नेहरू जी के
समक्ष भारत में अधिमिलन का प्रस्ताव रखा था। यदि ऐसा होता तो रिमलैंड पर नियंत्रण
के द्वारा साम्यवादी रूस के प्रसार को रोकने का अंग्रेजों का सपना धूमिल हो जाने
की संभावना थी।
1946 में जब लार्ड
माउंटबेटन ने जब भारत या पाकिस्तान में अधिमिलन के प्रारूप पर चर्चा करने के लिए
भारतीय राज्यों (रियासतों) की मीटिंग बुलाई थी तो आश्चर्यजनक रूप से उस सूची में
कश्मीर के प्रतिनिधि का नाम शामिल नही किया गया था क्योंकि अंग्रेज मानकर चल रहे
थे कि कश्मीर को पाकिस्तान में ही शामिल होना है।
अलीगढ़
विश्वविद्यालय से पढ़कर लौटे शेख अब्दुल्ला कश्मीर घाटी के ऐसे नेता थे जिन्होंने
अपना राजनीतिक कैरियर एक कट्टर मुस्लिम नेता के रूप कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस की
स्थापना के साथ शुरू किया था।मुस्लिम रीडिंग रूम एवं मस्जिदों में जहरीले एवं
हिन्दू विरोधी भाषणों से शेख ने राजनीति शुरू की थी।लेकिन बाद में परिस्थितियों को
भांप कर वह प्रजा मण्डल आंदोलन से जुड़ गया।इसी कारण नेहरू,शेख के स्वाभाविक दोस्त बन गए थे।अपने साम्राज्यवादी
मंसूबो को पूरा करने के लिए शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने पंथ निरपेक्षता का आवरण ओढ़
कर नेहरू को मुगालते में रखा।शेख के बारे में कहा जाता था कि "वह घाटी में
घोर साम्प्रदायिक है,जम्मू में
साम्यवादी और दिल्ली जाते ही राष्ट्रवादी हो जाते हैं। "जिन्ना के पाकिस्तान
मॉडल में कश्मीर का तो अहम स्थान था लेकिन शेख के लिए कोई भूमिका नही थी।इसलिए शेख
ने रणनीतिक रूप से नेहरू का
इस्लामिक भयादोहन किया।वह नेहरू के समक्ष कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताता था
लेकिन अमरीका एवं ब्रिटेन के साथ आज़ाद कश्मीर की राह भी निरापद करने में अंदर ही
अंदर प्रयत्नशील था। 18 अप्रैल 1952 को श्रीनगर में शेख ने घोषणा की थी कि "कश्मीर
रियासत केवल सुरक्षा, संचार एवं
विदेश मामलों में भारत से जुड़ी है।बाकी वह पूरी तरह स्वतंत्र है।" असल में
इतना भी वह इसलिए स्वीकार करता था क्योंकि उसे अक्टूबर 1947 के पाकिस्तानी कबायली आक्रमण के बाद तक भी पाकिस्तानी
आक्रमण का खतरा दिखाई देता था। 1948 से 1953 के बीच सी पी
आई और सोवियत रूस भी शेख अब्दुल्ला को, कश्मीर को आज़ाद करने के लिए प्रेरक का कार्य करते रहे। शेख को ढाल बनाकर
कम्युनिस्ट ,रूसी सहयोग से
निकट भविष्य में कश्मीर को एक साम्यवादी स्वतंत्र देश बनाने का सपना बुन रहे थे।
कश्मीर के राष्ट्रवादी एवं प्रगतिशील महाराजा हरिसिंह ने अपने प्रगतिशील
सुधारों के कारण कश्मीर रियासत में कभी भी प्रजामंडल आंदोलन के लिए बहुत ज्यादा
गुंजायश नही छोड़ी थी।उन्होंने विधानसभाओं का चुनाव, अनिवार्य शिक्षा, मंदिरों में
दलितों का प्रवेश आदि सुधार बिना किसी आंदोलन के दबाव के पहले ही कर दिए थे। विलय प्रक्रिया की शुरुआत के समय महाराजा हरिसिंह ने
अपने प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन एवं प्रतिनिधि मंडल के माध्यम से नेहरू जी के
सामने भारत में विलय का प्रस्ताव भिजवाया लेकिन नेहरू ने हर बार विलय के लिए
कश्मीर की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपने की पूर्व शर्त रखी। महाराजा के लिए
यह पूर्व शर्त अव्यवहारिक एवं कष्टकारक थी क्योंकि वह शेख की फितरत से भली भांति
परिचित थे।शेख को महाराजा द्वारा राष्ट्रद्रोह के मामले में दी बार जेल में डाला
जा चुका था।1946 में जब शेख ने
"महाराजा कश्मीर छोड़ो" का नारा देकर आंदोलन शुरू किया था तो उसे
राष्ट्रद्रोह के केस में जेल में डाल दिया गया था, जिसकी पैरवी करने खुद नेहरू कश्मीर गए थे।जिन्हें तत्कालीन विषम
परिस्थितियों के कारण कश्मीर में नही घुसने दिया गया था और एक अतिथि गृह में दो
दिन खातिर करने के बाद वापस दिल्ली भेज दिया गया था।इस घटना को नेहरू ने व्यक्तिगत
अपमान के रूप में लिया और अंत तक वह महाराजा से घृणा करते रहे।शेख को अधिमिलन से
पहले कश्मीर की सत्ता सौंपने के परिणाम महाराजा समझ रहे थे- शेख और नेहरू की साझा
घृणा का शिकार होना।बाद के घटनाक्रम ने इसे सही साबित भी कर दिया।
महाराजा से अपने कथित अपमान का बदला लेने के लिये ही
जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर एक ओर जहां नेहरू जी अव्यवहारिक,अनमने और शेख के साथ व्यक्तिगत मित्रता को निभाने के
लिए महाराज के प्रति दुराग्रह पूर्ण नीति का अनुपालन कर रहे थे वहीं दूसरी और लार्ड
माउंटबेटन किसी भी तरह ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों की सुरक्षा के प्रति कटिबद्ध
थे।महाराज हरीसिंह असहाय एवं असमंजस में थे।
जवाहर लाल
नेहरू ने जम्मू एवं लद्दाख में शेख की ज्यादतियों को आंख बंद करके संरक्षण दिया।
शेख ने कश्मीर घाटी एवं मुस्लिम केंद्रित सरकार के गठन तक स्वयं को केंद्रित
रखा।सरकार में जम्मू एवं लद्दाख को प्रतिनिधित्व नही दिया।हिंदुओ के प्रतिनिधित्व
के नाम पर केवल जनाधार विहीन साम्यवादी नेताओं को अपनी छवि को धर्मनिरपेक्ष दिखाने
के लिए स्थान दिया।
इसके लिए उसने साम्यवादी डॉ एन एन रैना एवं मोती लाल मिस्त्री की मदद से 1944 में "नया कश्मीर" घोषणा पत्र तैयार करवाया।
लेकिन उसमें शामिल मानवाधिकार, समानता, वयस्क
मताधिकार आदि का कभी भी जम्मू एवं लद्दाख के संदर्भ में पालन नही किया।जम्मू का
प्रतिनिधित्व करने वाली प्रजा परिषद पार्टी को सामान्य राजनीतिक गतिविधियों तक की
अनुमति नही दी गई।इसके विपरीत इसके कार्यकर्ताओं का भयंकर दमन किया।
नेहरू के असहयोग एवं दबाव में महाराज हरिसिंह ने शेख
को आपात प्रशासक बनाने की शर्त मानकर 26 अक्टूबर 1947 को अधिमिलन
पत्र पर हस्ताक्षर करके प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन के हाथों दिल्ली भिजवाया। तब
भारत सरकार द्वारा पाकिस्तानी आक्रमण से निपटने के लिए कश्मीर में सैन्य
सहायता भेजी गई।अपनी सभी चालों को विफल होता देख ब्रिटेन ने रणनीति बनाई की कश्मीर
का जितना भी हो सके उतना भूभाग पाकिस्तान को दिलवाया जाए।इस रणनीति के तहत ही
गिलगिट की सुरक्षा में तैनात गिलगिट स्काउट्स के कमांडिंग ऑफिसर मेजर विलयम ब्राउन
ने वजीरे वजारत घनासरा सिंह के महल पर आक्रमण करके गिलगिट पर पाकिस्तानी झंडा
फहराकर 4 नवम्बर को
गिलगिट के पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा कर दी।गिलगिट विद्रोह ब्रिटिश धोखे
का परिचायक था, इसमे स्थानीय
जनता की कोई भूमिका नही थी।
कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण के मामले को संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले जाने के पीछे भी ब्रिटिश दबाव काम कर रहा था।
माउंटबेटन के कहने पर ही नेहरू संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आक्रमण का मामला
लेकर गए थे।जबकि पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए भारतीय भूभागों को खाली कराने का सेना
के पास सामर्थ्य भी था और अनुकूल समय भी। संयुक्त राष्ट्र में मामला जाने पर
अमरीका एवं ब्रिटेन को मानो मनवांछित फल मिल गया हो।भारत पर इटली के माध्यम से
दबाव बनाने के लिए धमकी का सहारा लिया गया "स्पष्ट कहा गया कि भारत पाकिस्तान
से कश्मीरी भूभाग खाली कराने की हिमाकत न करें।" इस प्रकार नेहरू जी जाल में
फंस चुके थे और रूसी एवं चीनी साम्राज्य के कथित दक्षिण एशिया में विस्तार को
रोकने के लिए अमरीका एवं ब्रिटेन को कश्मीर में अपनी गतिविधियां चलाने के लिए अनुकूल
वातावरण मिल चुका था।नेहरू भावुक राजनेता के अलावा कश्मीर मसले को लेकर एक
दूरदर्शी राजनेता किसी भी रूप में साबित नही हो सके।
आज परिस्थितियां बिल्कुल अलग है।भारत-अमरीका की
नजदीकियां बढ़ रही है।क्षेत्रीय सामरिक समीकरण बदल रहे हैं।ग्रेट गेम की नई व्यूह
रचना बन रही है।तिब्बत पर चीनी कब्जा,अक्साईचिन एवं शक्सगाम घाटी पर चीनी नियंत्रण,कश्मीर के बड़े भाग पर पाकिस्तान का कब्जा,अफगानिस्तान में भारत, अमरीका की उपस्थिति एवं दोनों के साझा हित को देखते हुए भारत को कश्मीर
नीति में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।अफगानिस्तान आतंकवाद की प्रयोगशाला
बना हुआ है।बदलती वैश्विक परिस्थितियों में रूस,चीन तालिबान की पीठ थपथपाते नजर आ रहे हैं।रूस पाकिस्तान को गले लगा रहा है,चीन से पींगें बढ़ा रहा है, ऐसे में रूस पर भी ज्यादा भरोसा नही किया जा सकता है।
सुरक्षित अफगानिस्तान भारत की सुरक्षा की गारंटी
है।इसलिए भारत एवं अमरीका को अफगानिस्तान को केंद्र में रखते हुए कश्मीर नीति पर
सामरिक एवं भूराजनीतिक दृष्टिकोण से गहन मंथन करना होगा।भारत को बलोचिस्तान के साथ
साथ पख्तूनिस्तान में पीड़ितों एवं वहां हो रहे मानवाधिकारों के हनन के विरुद्ध
वैश्विक मंच पर आवाज उठाकर पख्तूनों का नैतिक समर्थन करना चाहिए।पख्तून पाक
अधिक्रान्त जम्मू एवं कश्मीर में हो रहे पाकिस्तान जुल्मों के विरुद्ध एक ढाल बन
सकते हैं। भविष्य का आज़ाद पख्तूनिस्तान अधिक्रान्त जम्मू कश्मीर के पाकिस्तानी
बंधनों की जंजीर तोड़ने का कार्य करेगा।अफगानिस्तान के माध्यम से भी पख्तूनों के
जख्मों पर मरहम लगाए जाने की आवश्यकता है जो 1947 से ही पख्तूनख्वा की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे है।पाकिस्तान पख्तूनों पर भयंकर
जुल्म ढा रहा है। अफगानिस्तान में भी भारत को अमरीका के साथ मिलकर अपनी मजबूत
सैन्य उपस्थिति दर्ज करानी होगी ताकि वहां दोबारा से तालिबान को संजीवनी दिए जाने
के प्रयास सफल न हो सके।कश्मीर एवं भारत के किसी भो भूभाग को लेकर रक्षात्मक की
बजाय अधिक आक्रामक रुख अपनाए जाने की जरूरत है। पाक अधिक्रान्त जम्मू कश्मीर के
प्रति भारत की छोटी सी उपेक्षा नासूर बन सकती है। क्योंकि चीन वहां लगातार पैर
पसारता जा रहा है।यह क्षेत्र भारत का अभिन्न अंग है।इस क्षेत्र के लिए जम्मू
कश्मीर विधान सभा के रिक्त विधान सभा एवं लोकसभा क्षेत्रों को यहां के
विदेशों में बसे नागरिकों एवं भारत में ही शरणार्थी बनकर रह रहे लोगों से भरने की
प्रक्रिया शीघ्र शुरू करनी होगी।असंवैधानिक रूप से जम्मू कश्मीर के विधान सभा एवं
लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन प्रतिबंधित किया गया है,जिसे यथाशीघ्र सम्पन्न कराना होगा।
जम्मू-कश्मीर, प्रदेश का 1/9वां भाग होने
के बावजूद कश्मीर पूरे प्रदेश का शक्ति केन्द्र बना हुआ है। जबकि जम्मू क्षेत्र की
जनसंख्या पूरे प्रदेश की जनसंख्या की लगभग आधी है तथा जम्मू क्षेत्र का क्षेत्रफल
कश्मीर के क्षेत्रफल से दोगुना है।प्रदेश विधान सभा की सीटों का बंटवारा भी
निर्धारित नियमों के अनुसार नहीं किया गया है। 1981 में हुई जनगणना के अनुसार जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या 24,83,906 है तथा कश्मीर घाटी की जनसंख्या 24,10,220 है। परन्तु प्रदेश की विधायिका में जम्मू को 37 तथा कश्मीर को 46 सीटें दी गई हैं। कश्मीर का राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए ही ऐसा किया
गया है। यदि "रिप्रेजेण्टेशन आफ जे.एण्ड के. पीपुल एक्ट' में दिए गए प्रावधानों का ईमानदारी से पालन किया जाए
तो जम्मू को 52 तथा कश्मीर को
46 सीटें मिलनी
चाहिए। प्रदेश का मुख्यमंत्री सदैव कश्मीर घाटी से ही बनता आया है। लद्दाख की जनता
को दो नम्बर की प्रजा का दर्जा दिया गया है। पिछली केन्द्र सरकारों की तुष्टीकरण
की नीति ने कश्मीर का रौब-दाब और बढ़ा दिया।2008 में हुए विधान सभा चुनावों में जम्मू क्षेत्र की विधान सभाओं में औसत
मतदाताओं की संख्या 82358 थी जबकि
कश्मीर घाटी के लिए यह कुल 71329 ही थी।इस प्रकार कश्मीर की राजनीति को जानबूझकर कश्मीर केंद्रित रखा गया है
ताकि दुनिया को इसके मुस्लिम बाहुल्य होने का संदेश दिया जा सके।जम्मू अथवा लद्दाख
क्षेत्र से आज तक राज्य का कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री नही बन पाया है।शेख अब्दुल्ला
की जम्मू एवं लद्दाख क्षेत्र से विभेद की नीति आज भी कश्मीर में जारी है।शेख ने
जम्मू की जनसंख्या अधिक होने के बावजूद मनमाने तरीके से संविधान सभा की 75 सीटों में से कश्मीर के लिए 43 जम्मू हेतु 30 एवं लद्दाख को केवल 2 स्थान ही दिए थे।
यह सोचने का
विषय है कि यदि हम अपने एक राज्य के लोगों को विधानमंडल में न्यायपूर्ण
प्रतिनिधित्व नही दिला सकते हैं तो फिर संयुक्त राष्ट्र संघ में देश के लिए
न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व प्राप्त करना कितना कठिन होगा।कश्मीर समस्या के समाधान
बहुत हैं लेकिन रास्ता एक ही है- केंद्रीय नेतृत्व की दृढ़ इच्छा शक्ति एवं राष्ट्र
प्रथम की प्रबल भावना।
पटेली शैली मे
होनी चाहिए वार्ता:
कश्मीर:पटेली शैली में हो वार्ता
@सुनील सत्यम
--------------मानस-मंथन----------
भारत सरकार जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली चाहती है।इसलिए
आतंकवादियों एवं अलगाववादियों से दोहरे स्तर पर निपटने की रणनीति पर चल रही
है।आतंकवादियों को स्थानीय नागरिकों से प्राप्त खुफिया जानकारी के आधार पर उनके
अंतिम अंजाम तक पहुंचाकर घाटी को फिर से स्वर्ग बनाने के हर सम्भव प्रयास किये जा
रहे हैं।हाल ही में जम्मू एवं कश्मीर समस्या से जुड़े सभी पक्षकारों से वार्ता करने
के लिए भारत सरकार द्वारा आईबी के पूर्व महानिदेशक दिनेश्वर शर्मा को मुख्य
वार्ताकार नियुक्त किया गया है। शर्मा मसले का हल करने के लिए कश्मीर से जुड़े सभी
पक्षों से कहीं भी और कभी भी,किसी भी संबंध में वार्ता
करने को स्वतंत्र हैं। स्पष्ट है कि सरकार मुद्दे के स्थाई समाधान के लिए गम्भीर
है। कश्मीर घाटी में हालात को सामान्य करने एवं जम्मू एवं कश्मीर को विकास के
महामार्ग पर चलाने के लिए सकारातमक वार्ता
जरूरी है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। कश्मीर में अराजक तत्व दो श्रेणी में
वर्गीकृत किये सकते हैं।आतंकवादी एवं अलगाववादी। आतंकवादी, पाकिस्तान प्रायोजित हैं। वार्ता के दौरान हमें सीमा पर तैयार भारत
के बहादुर सैनिकों की "तैयार गन" के द्वारा उनका हर प्रकार से न केवल
मुकाबला करना है वरन भारतीय सेना के सेना अध्यक्ष के शब्दों में "उनको रिसीव
कर के ढाई फुट जमीन के नीचे पहुंचाते रहना है"। यह प्रक्रिया तब तक अनवरत
चलती रहनी चाहिए जब तक कि वह ऐसा करते रहे।यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा प्रश्न
है।इसलिए इसमें कश्मीर समस्या का कोई विशेष तत्व निहित नहीं है। कश्मीर घाटी में
अलगाववादी तत्व कश्मीर में अशांति के
लिए प्रमुख कारक हैं। वह भारतीय हैं लेकिन पाकिस्तान को अपना आका मानते हैं।वह
कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल कराने के लिए भारत के विरुद्ध राष्ट्रद्रोहात्मक
कार्य करते हैं। आए दिन भारत विरोधी षड्यंत्र रचते रहते हैं। तथाकथित भटके हुए
कश्मीरियों को हमें राह पर लाना है। वार्ता उसके लिए एक बेहतर विकल्प है। संवाद से
ही समाधान निकलते हैं। लेकिन अलगाववादियों से हमें सख्त "पटेली शैली"
में वार्ता करनी है। "पटेली शैली" से मेरा अभिप्राय भारत के प्रथम
गृहमंत्री लौहपुरुष सरदार पटेल की देशी रियासतों को भारत में विलय करने के समय
अपनाई गई शैली से है। जिसमें सरदार पटेल देसी रियासतों को उनके शासकों द्वारा भारत
में विलय के संबंध में ना नुकुर सुनने के अतिरिक्त उनकी अन्य सभी समस्याओं को खुले
मन से सुनते भी थे और उनका समाधान भी देते थे। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मामले
पर सरदार पटेल, उद्दंड देशी रियासतों के किसी भी
दबाव में नहीं आए। हैदराबाद के शासक कासिम रिजवी द्वारा आज के कश्मीरी
अलगाववादियों से भी अधिक दबाव सरदार वल्लभ भाई पटेल पर बनाने का प्रयास किया गया
था। कासिम ने घोषणा की थी कि "यदि भारतीय अधिराज्य, हैदराबाद में प्रवेश करेगा तो उसे हैदराबाद में रहने वाले डेढ़ करोड़
हिंदुओं की हड्डियों एवं राख के अलावा कुछ हासिल नही होगा।" निजाम की धमकी
कश्मीरी अलगाववादियों की किसी भी धमकी से कहीं ज्यादा गम्भीर एवं दबावात्मक थी।
लेकिन सरदार पटेल नहीं झुके। उन्होंने न केवल हैदराबाद का ऑपरेशन पोलो के द्वारा
रक्तहीन तरीके से भारत में विलय सुनिश्चित किया वरन निजाम की समस्याओं को सुनकर
उनका निदान भी किया। सरकार ने कश्मीर में दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार नियुक्त
करके मन की बात की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का कार्य किया है। जन-संवाद से समाधान
की राह बनाती है ।वार्ता में हम अपनी बात कहेंगे भी और अलगाववादी तत्व एवं कश्मीर
के अन्य लोगों की वार्ता सुनेंगे भी।सरकार जम्मू कश्मीर को समग्र रूप से देखती
है।अर्थात जब कश्मीर समस्या का जिक्र आता है तो उसमें जम्मू,लद्दाख,गिलगिट-बाल्टिस्तान सहित समस्त पाक अधिक्रान्त जम्मू कश्मीर एवं चीन
के अवैध कब्जे में शामिल भाग भी समाहित है। आम भारतीय के लिए कश्मीर समस्या का
अर्थ केवल घाटी के कुछ जिलों के असंतुष्ट अलगाववादी नही हैं।वरन वहां के हिंदुओं,बौद्धों, सिखों एवं शियाओं का दर्द भी शामिल है।कश्मीरी पंडितों सहित विभाजन
के समय जम्मू में आकर बसे हजारों शार्णनार्थियों का पुनर्वास एवं नागरिकता
सम्बन्धी मसले भी आते है।कश्मीर को औधोगिक विकास के रास्ते ले जाना,बाधित पर्यटन को पुनः पटरी पर लाना,पाकिस्तान से अवैध घुसपैठ और घाटी
में म्यांमार से आये रोहिंग्या घुसपैठियों से निपटना भी कश्मीर समस्या के मुद्दे
के केंद्र में शामिल किया जाना चाहिए।जम्मू कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर घाटी नही
है।कश्मीर घाटी समस्त जम्मू कश्मीर का लगभग 1/9 भाग है।इसके अतिरिक्त जम्मू,लद्दाख एवं गिलगिट बाल्टिस्तान,जम्मू कश्मीर के महत्वपूर्ण सम्भाग है।जम्मू एवं लद्दाख न केवल शांत
एवं संतुष्ट है वरन यह घाटी के अलगाववादियों को ना पसंद भी करते
हैं।गिलगिट-बाल्टिस्तान, पाकिस्तान के अवैध कब्जे
में है।इसके अतिरिक्त ऑक्साइचीन एवं शक्सगाम घाटी चीन के अवैध कब्जे में हैं।केवल
घाटी कश्मीर नही है और न ही घाटी की समस्या ही सम्पूर्ण जम्मू एवं कश्मीर की
समस्या है।ऐसे में अलगाववादी आतंक एवं बंदूक के दम पर पाकिस्तानी सहायता से घाटी
में अस्थिरता उत्पन्न करके इसे सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर की समस्या दिखाने पर तुले
हुए हैं।
जम्मू कश्मीर के भारत में अधिमिलन का संवैधानिक अधिकार केवल वहां
के शासक महाराजा हरिसिंह को था।अधिमिलन की प्रक्रिया महाराजा द्वारा 26 अक्टूबर1947 को सम्पादित की जा चुकी है।जनमत
संग्रह का जहां तक सवाल है, 1956 में
जम्मू कश्मीर की चयनित विधान सभा उस मसले पर अपनी मुहर लगा चुकी है।यह कश्मीरी
अलगाववादियों को साबित करना है कि क्या घाटी सहित जम्मू कश्मीर के सभी 22 जिलों एवं पाक अधिक्रान्त जम्मू
कश्मीर में भी उनको जन समर्थन प्राप्त है?
कश्मीर समस्या की जड़ में जम्मू कश्मीर में असमानुपातिक विधान
सभा एवं लोकसभा क्षेत्रों का विभाजन, पाकिस्तानी
अतिक्रमण, अहले हदीस अनुयायियों द्वारा
मस्जिदों एवं मदरसों का राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के शिक्षण,प्रशिक्षण एवं प्रसार के लिए
इस्तेमाल,शरणार्थी कश्मीर पंडितों के
पुनर्वास,आतंकवाद के कारण पर्यटन एवं आर्थिक
विकास का अवरुद्ध होना, विभाजन के समय एवं
भारत-पाक आक्रमण के कारण कश्मीर में आये शरणार्थियों को नागरिकता एवं मतदान का
अधिकार देना, आदि शामिल है।
कश्मीरियत का सम्मान है लेकिन कश्मीरियत,भारतीयता से बड़ी नही हो सकती
है।अलगाव के नाम पर असंवैधानिकता को प्रश्रय नही दिया जा सकता है।धारा 370 के अस्थाई प्रावधानों को बिना
ससंदीय अनुमोदन के स्थाई नही किया जा सकता है।राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में
शामिल की गई धारा 35
ए अध्यादेश से ज्यादा
अहमियत की नही है।अध्यादेश की समय सीमा अनिश्चित नही है।इस तरह संवैधानिक तौर पर
अब धारा 35 ए शून्य है।यदि इसे वैधानिक बनाना
है तो संसदीय प्रक्रिया का पालन करके ही ऐसा किया जा सकता है।अलगाववादियों की
इच्छा ही शासन एवं कानून नही हो सकती है।संविधान के प्रावधानों के अनुकूल ही एक तय
सीमा तक किसी क्षेत्र अथवा राज्य को स्वायत्तता सम्भव है।जम्मू कश्मीर भी इसका
अपवाद नही है।ज्यादा जनसँख्या के बावजूद भी शेख अब्दुल्ला के समय से ही जम्मू
कश्मीर की राजनीति को घाटी केंद्रित रखने के लिए जम्मू को कश्मीर से कम
प्रतिनिधित्व दिया गया है।जम्मू कश्मीर का केवल मुस्लिम बाहुल्य होना, अलगाववादियों की मंशानुरूप जम्मू
कश्मीर को पाकिस्तान की झोली में डाल देने का आधार नही हो सकता है।वहां के
अल्पसंख्यक हिंदुओं,बौद्धों एवं सिखों की राय भी
महत्वपूर्ण है।गिलगिट बाल्टिस्तान के शिया मुस्लिम कभी पाकिस्तान के साथ नही जाना
चाहेंगे।वैसे भी जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह संयुक्त राष्ट्र संघ सुझाव का सबसे
अंतिम और तीसरा बिंदु है।क्या अलगाववादी पाकिस्तान पर इसके लिए दबाव बना सकते हैं
कि जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह के लिए परिस्थितियां तैयार करने के लिए वह
अधिक्रान्त जम्मू कश्मीर से अतिक्रमण समाप्त करें।यदि वे यह नही कर सकते हैं जो वो
करते भी नही हैं,तो इसका अर्थ स्पष्ट है कि वे भारत
के इस राज्य को अलग करना चाहते हैं। जिसकी अनुमति न तो देश का संविधान देता है और
न ही जनता! यदि अलगाववादी यह तय ही कर चुके हैं कि वह देश को खंडित करना चाहते हैं
तो फिर उनके लिए भी तैयार गन एवं खुला मन नीति ही कारगर होगी।जिस स्वाधीनता को पाने के लिए
देश ने अपना रक्त बहाया है उसे बचाने के लिए भी हम शत्रु का रक्त बहाने में संकोच
नही कर सकते हैं।हम अलगाववादियों के द्वारा जम्मू कश्मीर के अपहरण की अनदेखी नही
कर सकते हैं।
कश्मीर समस्या के समाधान के लिए वार्ता करते समय हमें सीमा पर
सतर्कता में किसी तरह की रियायत किसी भी सूरत में नही देनी है।सीमा पर लगातार दबाव
एवं अलगाववादी तत्वों से संवैधानिक दायरे में वार्ता करनी होगी।राष्ट्र की अखंडता
एवं संघीय स्वरूप के विरुद्ध कोई रियायत किसी भी पक्ष को नही दी जा सकती है।वार्ता
के समानांतर, अलगाववादी एवं स्वार्थी तत्वों को
सार्वजनिक रूप से अनावरित करते रहने की नीति पर भी ध्यान केंद्रित रखना होगा।
संदर्भ:
कश्मीर । पटेल बीते समय की
घटनाओं से प्रभावित न होने पर अटल थे खासकर उस समय जब स्वतंत्रता कुछ ही दूर खड़ी
नजर आ रही थी 1920 के
शुरुआती महीनों में गांधी ने खिलाफत को भारत की स्वतंत्रता से अधिक महत्व देते हुए
कहा था यदि खिलाफत को कोई फायदा हो तो मैं खुशी से स्वराज को मुल्तवी कर दूंगा इस
बार मार्च 1947 को भी
वही कहानी दोहराई जाती नजर आ रही थी गांधी को भारत की अखंडता उस की स्वतंत्रता से
ज्यादा प्यारी थी पटेल में बसे यथार्थवादी को यह बिल्कुल मंजूर नहीं था जैसा कि
कैबिनेट मिशन की गुट योजना में सोचा गया था उन्हें भारत की अखंडता से ज्यादा
विभाजन पसंद था।(सरदार वल्लभ भाई पटेल,बी कृष्णा,पृष्ठ 81)
इस परिस्थिति को लेकर पटेल का विश्लेषण पंजाब के एक अनुभवी सिविल
सर्वेंट पेंडेरल मून के समरूप था
उनका कहना था कि "यदि संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू हो भी गई
होती तो वह ज्यादा दूर नहीं जा पाती एक कमजोर और आसानी से खंडित होने वाला भारत
राष्ट्र.... एक कमजोर और आसानी से खंडित होने वाला भारत राष्ट्र .... इस एकता को
बनाए रखने के लिए संग बहुत बड़ी कीमत वसूल करता..... कमजोर संग केंद्र जो अपने
आंतरिक सांप्रदायिक विभाजन के हाथों पर शक तो हो जाता" (पेंडेरल मून, डिवाइड एंड क्विट, पृष्ठ 64)
15 दिसम्बर 1950 पटेल का
देहांत
4 नवम्बर 1947 पटेल , रक्षा मंत्री बलदेव सिंह के
साथ श्रीनगर पहुंचे।
26 अक्टूबर
को महाराजा हरि सिंह के भारत में सम्मेलन के तुरंत बाद समिति को हवाई जहाज के जरिए
श्रीनगर में सेना भेजने का फैसला लेना पड़ा था नेहरू हमेशा की तरह अंतर्राष्ट्रीय
राय को लेकर परेशान होकर ढुलमुल आ रहे थे सैन्य कार्यवाही के कार्य भारी फील्ड
मार्शल सैम मानेकशॉ के अनुसार "राज्यों के सम्मिलन तथा संयुक्त राष्ट्र के
बारे में पंडित जी के लंबे विवरण को अधीर पटेल ने यह कहते हुए बीच में काट दिया
"जवाहर आपको कश्मीर की परवाह है कि नहीं" पंडित जी ने गरजते हुए जवाब
दिया "बेशक है" तब सरदार पटेल ने सैम मानेकशॉ को कश्मीर में कार्रवाई
करने का इशारा करते हुए कहा "जाइए आपको आपके आदेश मिल जाएंगे"( सोली
सोराबजी,इंडियन
एक्सप्रेस, में
नाइंटी चीर्ज़ फ़ॉर सैम बहादुर,
2 अप्रैल,2003)
इस तरह पटेल ने चल रही दिल बुलाहट का अंत किया और 27 तारीख की अगली सुबह को
सैनिक टुकड़ी को हवाई जहाज द्वारा कश्मीर भेज दिया गया उस समय पर किसी भी तरह की
देरी पाकिस्तान की सहायता करती न सिर्फ श्रीनगर पर कब्जा करने के लिए बल्कि पूरे
राज्य को उसी स्थिति में वापस पहुंचा कर उस पर नियंत्रण जमाने के लिए जैसा सत्ता
के हस्तांतरण से पहले था पाकिस्तान को इस मामले में अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिल
जाता। इस तरह घाटी पर मंडरा रहा खतरा तो टल गया लेकिन पाकिस्तान का उत्साह कम नहीं
हुआ पटेल इसे खत्म करने के लिए भी बहुत बेचैन थे 1948 में जब नेहरू यूरोप के दौरे
पर थे तब पटेल प्रधानमंत्री पद संभाल रहे थे उन्होंने चीफ ऑफ स्टाफ समिति के
अध्यक्ष एयर मार्शल थामस एलमेहरिस्ट को, " कश्मीर युद्ध के एक मुद्दे पर चर्चा करने के लिए
बुलवाया" और उनसे कहा "यदि सभी निर्णय मेरे अकेले के हाथ में होते तो
मैं कश्मीर के एक छोटे से मसले को पाकिस्तान के साथ एक विस्तृत युद्ध में बदल देता
क्यों ना इस मामले को हमेशा के लिए निपटाकर एक संयुक्त महाद्वीप की तरह रहा जाए''( एयर मार्शल थामस एलमेहरिस्ट
का बी कृष्णा को पत्र, 8 जनवरी 1969)