गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

भारत माता की जय

उत्तरं यत्समुद्रस्य,हिमाद्रेश्चैवदक्षिणं
वर्ष तद भारतं,नाम भारती यत्रसंतति।।
           अर्थात जो समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में स्थित है उस देश का नाम भारत है तथा उसकी संताने भारती कहलाती है।।
                        (विष्णु पुराण 2/3,1)

मौर्यकालीन (ईसा पूर्व 600 से 300) विष्णु पुराण में भारत भूमि का वर्णन करते हुए इसके वासियों को इसकी सन्तान "भारती" बताया गया। ईस्लाम का आगमन ही 7वीं सदी ई. में हुआ। यानि ईस्लाम के आगमन से लगभग 900 से 1200 वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने भारत भूमि को माता मानकर खुद को इसकी सन्तान के रूप में देखा।उससे भी पहले हड़प्पाई स्थलों से भी इसके प्रमाण मिलते है।
       फिर भी कुछ "ज्यादा समझदार" लोग कहते है कि "भारत माता की जय" संघ द्वारा थोपा जाने वाला नारा है।भारत के हिन्दू-मुस्लिमों के पूर्वज साझे है।जिन्होंने विष्णु पुराणादि लिखे वे मुस्लिमों के भी पूर्वज थे।किसी पराये घर की लड़की से शादी के बाद ऐसा नहीं होता है कि हम अपने माँ -बाप को छोड़कर सिर्फ लड़की के माँ बाप को ही अपना बताने लगे और अपने माँ बाप को पहचानना ही बन्द कर दें।
जिसको बोलना है बोले,नही बोलना है न बोले।संस्कार किसी पर जबरन नहीं थोपे जा सकते है।यह संस्कार और संस्कृति से सम्बंधित है।

"भारत माता की जय"

गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

भीवा रामजी अम्बवाड़ेकर

महाभीम,जयभीम,छोटाभीम,सुपरभीम
--------------------------@सुनील सत्यम
डॉ भीमराव अम्बेडकर को हिंदुस्तान में सिर्फ अपने मतलब भर के लिए समझा गया।"अम्बेडकर अपने ज़माने का आश्चर्य थे।" तमाम विपरीत परिस्थितयों के बावजूद उन्होंने न केवल अपनी सार्थकता को सिद्ध किया वरन कांग्रेस जैसे विशाल संगठन के लिए वह एक बड़ी मजबूरी बन गए।
स्वतंत्रता संघर्ष के दो ऐसे बड़े नाम है जिनसे कांग्रेस हमेशा भयभीत रही और उन्हें कभी अपना अध्यक्स नहीं बनने दिया,ये दो महान हस्तियां थी लोकमान्य तिलक और डॉ अम्बेडकर।
डॉ साहब ने बाल्यकाल से छुआछूत का  दंश झेला और वह इस बात से आहत थे कि छुआछूत और जाति व्यवस्था का उन्मूलन आज़ादी की लड़ाई के कांग्रेसी अजेंडे में नहीं थे।कांग्रेस की चिंता में मुस्लिम अधिक थे इसलिए कांग्रेस ने 1916 में लखनऊ में मुस्लिम लीग के साथ "लखनऊ पैक्ट"किया जिसमे मुसलमानों के लिए मिंटो-मॉर्ले क8 मंशानुरूप पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग स्वीकार कर ली।लखनऊ पैक्ट ही वह पहला बड़ा ऐतिहासिक विकास था जो भारत विभाजन के विचार के लिए एक बेहतरीन उर्वरक सिद्ध हुआ।डॉ अम्बेडकर लखनऊ पैक्ट के बेहद खिलाफ थे और वह कांग्रेस से देश के वंचित वर्ग के लिए तवज्जो चाहते थे।वह गांधी जी के अछूतोद्धार कार्यक्रम से भी नाइत्तेफ़ाकी रखते थे क्योंकि यह अपर्याप्त थे।वंचित वर्ग की लड़ाई लड़ने के लिए डॉ अम्बेडकर अपने बलबूते ही गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने लन्दन तक गए।आज़ादी के समय तक अम्बेडकर "महाभीम" के रूप में सामने आ चुके थे।संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में उनकी नियुक्ति नेहरू की उदारता नहीं वरन मजबूरी थी क्योंकि उनके कद का विशेषज्ञ उस समय कोई अन्य था ही नहीं।डॉ अम्बेडकर से नेहरू इतने भयभीत थे कि उन्हें हरहाल में चुनाव में हराने के लिए उनके खिलाफ चुनाव प्रचार में भी गए।
       कथित समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के वह बेहद खिलाफ थे और इसीलिए संविधान की प्रस्तावना में उन्होंने "धर्मनिरपेक्ष एवम् समाजवादी" शब्द को शामिल नहीं होने दिया।हिन्दू धर्म की शोषणकारी परम्पराओं के चलते उन्होंने धर्मपरिवर्तन की घोषणा कर दी।कई मौलाना उनसे मिलने पहुंचे ताकि उन्हें मुस्लिम बनाया जा सके।लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया।क्योंकि उनका मानना था कि"इस्लाम अपनाने के बाद मेरी आस्था देश से कटकर अरब देशों के साथ जुड़ जायेगी।" और उन्होंने इसी कारण आखिरकार बौद्ध धर्म अपनाने का फैसला किया जो कि एक स्वदेशी पंथ था।
(जारी)

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

बगड़ावत भारत 7

#बगडावत_भारत_कथा_7
एक बार जब राजकुमारी जयमती और हीरा दासी फुंदी (कीकली)खा रही होती है उनके पावों की धम-धम से सारा महल हिलने लग जाता है (क्योंकि वो दोनों तो दैवीय शक्तियां होती है) यह देख राजा पूछतेबहै कि यह क्या हो रहा है? तो पता चलता है कि बाईसा फुंदी खा (खेल) रही हैं। राजा देखते है की बाईसा अब बड़ी हो गयी है, इनकी शादी के लिये कोई सुयोग्य वर देखना होगा, और ब्राह्मणों को बुलवाते हैं। राजा ब्राह्मणों को टीका (रुपया व नारीयल) शगुन देकर कहते है कि राजकुमारी के लायक कोई सुयोग्य, प्रतापी, सुन्दर राजकुमार को ही ये शगुन जाकर देना और राजकुमारी का सम्बंध तय करके आना। यह बात राजकुमारी जयमती को पता चलती है कि पिताजी ब्राह्मणों के हाथ मेरी शादी का शगुन भेज रहे हैं तो वह चुपके से ब्राह्मणों को अपने पास बुलाती है, और उनकी खूब आवभगत करती है। और कहती है, हे ब्राह्मण देवता आप मेरी शादी का शगुन ऐसे घर में जाकर देना जहां एक बाप के २४ बेटे हो और दूसरे नम्बर के बेटे का नाम सवाई भोज हो उसी के यहां जाकर मेरा लगन तय करना। और साथ में कपड़े पर सवाई भोज का चित्र बनाकर देती है और कहती है कि अगर कहीं और जाकर आपने मेरा सम्बंध तय किया तो मैं आप को जिन्दा नहीं छोडूंगीं, मरवा दूंगी। ब्राह्मणों को जाते समय जयमती काफी रुपया-पैसा देकर भेजती है।ब्राह्मण खुशी-खुशी रवाना हो जाते हैं। ब्राह्मण सारी दुनियां में घूम फिर कर थक जाते हैं लेकिन उन्हें जयमती द्वारा बताया हुआ वर नही मिलता है। यहाँ तक कि उनकी हालत इतनी दयनीय हो जाती है कि उनके कपड़े फट जाते है, दाढ़ी बढ़ जाती है। भिखारियों से भी बदतर हालतहो जाती है। घूमते-घूमते आखिरकार ब्राह्मण गोठां पहुंचते हैं। वहां उन्हें पनिहारियां मिलती हैं और उनकी हालत पर हंसती हैं क्योकि उनके कपड़े फटे हुए और वह भूखे प्यासे होते हैं। पनिहारियां उनसे पूछती हैं कि क्या दुख है जो इतने परेशान हो, तो ब्राह्मण कहते हैं कि ऐसे कुल की तलाश है जहां एक बाप के २४ बेटे हो और सवाई भोज का चित्र दिखाते हैं। वे कहती हैं कि यह तो हमारे ही गांवके हैं। और ब्राह्मणों को बगड़ावतों के घर छोड़ देती हैं। बगड़ावत उनकी आव भगत करते हैं। नए कपड़े, खाना-पीना देते हैं। ब्राह्मण सवाई भोज को राजा बुआल द्वारा दिया हुआ शगुन का टीका और नारीयल देते हैं। सवाई भोज कहते हैं कि हमारे सभी भाईयों के एक-एक दो-दो रानियां है। इसे लेकर हम क्या करेगें। और फिर हम तो ग्वाल हैं। एक राजा के यहाँ तो राजा ही सम्बन्ध करता है। ऐसा करो की यह शगुन तुम राण के राजाके यहां ले जाओ। यह बात सुनब्राह्मण राजकुमारी जयमती द्वारा कही सारी बात बताते हैं और कहते हैं यह तो आप के लिये ही है और यह आपको ही लेना होगा। सवाई भोज सभी भाईयों की सहमती से शगुन ग्रहण कर लेते हैं और ब्राह्मणों को राजी खुशी वहां से दक्षिणा देकर विदा करते हैं। ब्राह्मण उन्हें राजा बुआल का सारा पता ठिकाना देकर कहते हैं कि फलां दिन के सावे हैं और ४ दिन पहले बारात लेकर बड़े ठाट-बाट से शादी करने के लिये पधारें। ब्राह्मणों के जाने के बाद सवाई भोज अपने सभी भाईयों के साथ मिलकर यह फैसला करते हैं कि यह लगन का टीका हम स्वयं रावजी के यहां भिजवा देते हैं। रावजी की कोई सन्तान नहीं है, शायद इस रिश्ते से उन्हें कोई सन्तान प्राप्त हो जाए। जब रावजी को शगुन का टीका नारीयल मिलता हैं तब रावजी कहते हैं कि मैं तो अब बूढा हो गया हूं और टीका लेने से आनाकानी करते हैं। बगड़ावत जिद करते हैं और कहते हैं कि आप चिंता मत करिये, शादीमें सारा धन हम खर्च करेंगे। रावजी कंजूस प्रवृति के होते हैं, खर्चे की बात सुनकर तैयार हो जाते हैं। बगड़ावत रावजी से कहते हैं हम बारात में इधर से ही पहुंच जायेगें। आप उधर से सीधे पहुंच जाना, हम सब बुवांल में ही मिलेंगे। शादी के लिए निमंत्रण भेजेजाते हैं। पहला निमन्त्रण गणेशजी को और सभी देवी देवताओं को, फिर अजमेर, सावर, पीलोदा, सरवाड़, भीलमाल और मालवा सभी जगह निमंत्रण भेजे जाते हैं। रावजी के ब्याह की खुशी में गीत गाए जाते हैं उन्हें उबटन लगाया जाता है, नहला धुला कर उनका श्रृंगार किया जाता है। इधर २४ बगड़ावत भाई सज धज कर अपने घोड़ों पर सवार हो बुआल के राजा के यहां पहुंच जाते हैं। उन्हें बाग में ठहराया जाता है। बारात मे आए हुए बगड़वतों को देखकर नीमदेवजी कहते हैकि बगड़ावत तो ऐसे सज कर आए हैं जैसे कि शादी इन्हीं की हो रही हो। सब के सिर पे मोहर बधा होता है। हीरा सभी बगड़ावतों का स्वागत करती है। जब जयमती को पता चलता है किबगड़ावत आ गये हैं, वह हीरा से पूछती है कि सवाई भोज दिखने में कैसे हैं, और वह सवाई भोज के बारे में ही पूछती रहती है। हीरा जयमती के मन की बात जानती है इसलिए सवाई भोज को कलश बन्धाती है। सवाई भोज हीरा के कलश को मोहरों से भर देते हैं।

बगड़ावत भारत 6

बगडावत भारत कथा -6
भगवान विष्णु बगड़ावतों को श्राप देने के लिये देव लोक से पृथ्वी पर साधु का वेश धारण कर बगड़वतों के गांव गोठां में प्रकट होते हैं। साडू माता अपने महल में पूर्ण नग्न अवस्था में स्नान कर रही होती है और सभी बगड़ावत गायें चराने हेतु जंगल में गये होते हैं। साधु वेश धारण कर भगवान विष्णु साडू माता के द्वार पर आकर भिक्षा मांगते हैं। साडू माता की दासी भिक्षा लेकर आती है तो साधु भिक्षा लेने से मना कर देते है और कहते हैंकि वह दास भिक्षा ग्रहण नहीं करेगें तुम्हारी मालकिन अभी जिस अवस्था में है उसी अवस्था में आकर भिक्षा दे तो वो ग्रहण करेगें अन्यथा वह श्राप देकर चले जायेंगे। यह बात सुनकर साडू माता सोचती है कि यह साधु जरुर कोई पहुंचे हुए संत हैं, इन्हें अगर इसी अवस्था में भिक्षा नहीं दी तो वो जरुर श्राप दे देंगे। साडू माता नहाना छोड़ नग्न अवस्था में ही दान लेकर साधु महाराज को देने के लिये आती है। भगवान देखते है कि यह तो उसी अवस्था में चली आ रही है। साडू माता एक दैवीय शक्ति होती है। उसके सतीत्व के प्रभाव से उसके सिर के केश (बाल) इतने बढ़ जाते हैं कि उसके केशों से सारा शरीर ढक जाता है। साधु को दान देकर उन्हे प्रणाम करती है। साधु वेश धारण किये भगवान कहते है कि मैं तुमसे प्रसन्न हुआ। तू कोई भी एक वरदान मांग। मैं आया तो तुझे छलने के लिये था (श्राप देने) मगर तेरे विश्वास से मैं प्रसन्न हुआ। साडू माता भगवान से कहती है कि महाराज मेरे कोई सन्तान नहीं है और अपने केशों की झोली फैलाकर कहती है की मेरी खाली झोली भर दो। भगवान कहते हैं तथास्तु। साडू माता तू अगर अपनी कोख बताती तो मैं तेरे गर्भ से जन्म लेता। लेकिन तूने झोली फैलाई है इसलिये मैं तेरी झोलियां ही आउंगा साडू माता पूछती है भगवान कैसे? साधू महाराज अपने असली रुप में आकर साडू माता को दर्शन देते हैं और कहते हैं कि जब भी तुम पर कोई विपदा आये तो तुम सुवा और सोतक के दिन टाल कर सुबह ब्रह्म मुहर्त में नहा-धोकर मालासेरी डूंगरी जाकर सच्चे मन से मेरा ध्यान करना, मेरा अवतार वहीं होगा।सबसे पहले चट्टान फटेगी,पानी बहकर आयेगा और उसमें कमल के फूल खिलेंगे। उन्हीं में से एक कमल के फूल में से मैं अवतरीत होकर तेरी झोल्या आउंगा। यह कह कर भगवान अन्तध्र्यान हो जाते हैं। भगवान विष्णु वापस आकर राजा बासक से कहते हैं मैं गया तो साडू माता को छलने के लिये था मगर उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दे बैठा। अब मैं कुछ नहीं कर सकता। चलो मैं तुमको शक्ति (दुर्गा) के पास ले जाता हूं, वह ही कुछ कर सकती हैं। भगवान विष्णु और राजा बासक दुर्गा के पास आते है और अपनी सारी बात वताते है। दुर्गा उन दोनों की बात सुनकर कहती है कि बगड़ावत तो मेरे सेवक हैं, मेरी भक्ति से पूजा करते रहते हैं। मैं उन्हें कैसे छल सकती हूं? मगर आपके लिये कुछ तो करना ही होगा। और बगड़ावतों को खपाने (मारने) का वचन राजा बासक को दे देती है। और दुर्गा, बुआल के राजा के यहां अवतरित होने की योजना बनाती है। एक दिन बुआल के राजा ईडदे सोलंकी शिकार खेलने जंगल में जाते हैं और उन्हें वहाँ एक पालने में शिशु कन्या मिलती है। वह उसे घर ले आते है और उसका नाम जयमती रखते हैं। जयमती के रुप मे दुर्गा देवी के साथ एक और देवी, दासी के घर जन्म लेती है। उसका नाम हीरा होता है बुआल के राजा के कोई सन्तान नहीं होती है इसलिए वह बहुत खुश होते है और उनका बहुत खुशी से पालन पोषण करते हैं। हीरा और जयमती साथ-साथ बड़ी होती है और सखियों की तरह रहती हैं। हीरा राजकुमारी जयमती की सेवा में ही रहती है।

बगड़ावत भारत 5

बगडावत_भारत_कथा_5
नियाजी से मिलकर नीमदेवजी वापिस रावजी के पास जाकर कहते हैं कि वे तो बाघ जी के बेटे बगड़ावत हैं। रावजी कहते हैं कि फिर तो वे अपने ही भाई है । रावजी सवाई भोज के पास आकर उनको अपना धर्म भाई बना लेते हैं। और उन्हें बड़े आदर के साथ नौलखा बाग में ठहराते है और पातू से दारू मंगवाते है और सवाईभोज को दारू पीने की मनुहार करते है। तब सवाईभोज ये शर्त रखते है कि अगर पातू मेरे इस बीडे (प्याला) को दारू से पूरा भर दे तो मैं पी सकता हूँ यह बात सुनकर पातु शर्त के लिये तैयार हो जाती है और सवाई भोज के पास जाती है और अपनी सारी दारु सवाई भोज की हथेली मे रखे बीडे में उंडेलती है। यहां तक की पातु की सारी दारु खतम हो जाती है। उसकी दोनों दारु की झीलें सावन-भादवा भी खाली हो जाती है। मगर सवाई भोज का बीडा खाली रह जाता है, भर नहीं पाता ।यह देखकर पातु घबरा जाती है और सवाई भोज के पांव पकड़ लेती है और कहती है कि आप मुझे अपनी राखी डोरा की बहन बना लीजिये। और सवाई भोज को राखी बान्ध कर अपना भाई बना लेती है।बगड़ावत नौलखा बाग से वापस आते समय मेघला पर्वत पर पातु द्वारा दिया गया दारु का बीड़ा खोलते हैं। उसमें से इतनी दारु बहती है कि धोबी उसमें अपने कपड़े धोने लगते है। बगड़ावत वहां काफी मात्रा में शराब गिराते है ।वह शराब इतनी मात्रा में जमीन पर उण्डेलते है कि शराब रिस कर पाताल लोक में जाने लगती है जो पृथ्वी को अपने शीश पर धारण करने वाले राजा बासक के सिर पर जाकर टपकती हैं, उससे शेषनाग कुपित हो जाते है। गुस्सा होते हुए राजा बासक तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु के पास जाकर बगड़ावतों की शिकायत करते हैं और कहते हैं कि हे नारायण बगड़ावतों को सजा देनी होगी। उन्होने मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया है। आप कुछ करिये भगवान।
अगला भाग कल पोस्ट किया जायेगा

बगड़ावत भारत 4

बगडावत_भारत_कथा_4
अपने घर आकर सवाईभोज बाबा रुपनाथ व सोने के पोरसे की सारी घटना अपने भाइयों एवं परिवार वालों को बताते हैं। इस अथाह सम्पत्ति का क्या करें यह विचार करते हैं। इतना सारा धन प्राप्त हो जाने पर सभी बगड़ावत अपना पशुधन और बढ़ाते हैं। सभी अपने लिये घोड़े खरीदते हैंऔर सभी घोड़ो के लिये सोने के जेवर बनवाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि बगड़ावत अपने सभी घोड़ों के सोने के जेवर कच्चे सूत के धागे में पिरोकर बनाते थे। उनके घोड़े जब भी दौड़ते थे तब वह जेवर टूट कर गिरते रहते थे और वे दोबारा जेवर बनवाते रहते थे। आज भी ये जेवर कभी-कभी बगड़ावतों के गांवो के ठिकानों से मिलते हैं। बगड़ावत खूब जमीन खरीदते हैं। और अपने अलग-अलग गांव बसाते हैं। सवाई भोज अपने गांव का नाम गोठां रखते हैं। बगड़ावत काफी धार्मिक काम करते हैं। तालाब और बावड़ियां बनवाते हैं और जनहित में कई काम करते हैं। बगड़ावतों के पास काफी सम्पत्ति होने से वो काफी पैसा शराब खरीदने पर भी खर्च करते हैं और अपने घोड़ो को भी शराब पिलाते हैं। एक बार सवाईभोज अपने भाइयों के साथ अपने राजा (रावजी) से मिलने जाने की योजना बनाते हैं। अपने सभी घोड़ो को सोने के जेवर पहनाते हैं। साडू माता नियाजी से पूछती है कि इतनी रात को कहाँ जाने की तैयारी है। नियाजी उन्हें अपनी योजना के बारे में बताते हैं और फिर सारे भाई राण की तरफ निकल पड़ते हैं। रास्ते में उन्हें पनिहारिने मिलती हैं और बगड़ावतों के रुप रंग को देखकर आपस में चर्चा करने लगती हैं। आगे जाकर उन्हें राण के पास एक खूबसूरत बाग दिखाई देता है, जिसका नाम नौलखा बाग होता है। वहां रुक कर सभी भाईयों की विश्राम करने की इच्छा होती है। यह नौलखा बाग रावजी दुर्जनसाल की जागीर होती है। नियाजी माली को कहते हैं कि पैसे लेकर हमें बैठने दे, लेकिन माली बगड़ावतों को वहां विश्राम करने से मना कर देता है। जिससे बगड़ावत गुस्सा हो जाते हैंवे उसे खूब पीटते हैं और नौलखा बाग का फाटक तोड़कर उसमें घुस जाते हैं। बाग का माली मार खाकर रावजी से उनकी शिकायत करनेजाता है। बगड़ावतों को नौलखा बाग के पास दो शराब से भरी हुई झीलों का पता चलता हैं। वह शराब की झीलें पातु कलाली की होती है जो दारु बनाने का व्यवसाय करती है। दारु की झीलों का नाम सावन-भादवा होता है, जिनमें काफी मात्रा में दारु भरी होती है। सवाई भोज नियाजी और छोछू भाट के साथ पातु कलाली के पास शराब खरीदने जाते हैं। पातु कलाली के घर के बाहर एक नगाड़ा रखा होता है, जिसे दारु खरीदने वाला बजाकर पातु कलाली को बताता है कि कोई दारु खरीदने के लिये आया है। नगाड़ा बजाने वाला जितनी बार नगाड़े पर चोट करेगा वह उतने लाख की दारु पातु से खरीदेगा। छोछू भाट तो नगाड़े पर चोट पर चोट करे जाते हैं। यह देख पातु सोचती है कि इतनी दारु खरीदने के लिये आज कौन आया है? पातु कलाली बाहर आकर देखती है कि दो घुड़सवार दारु खरीदने आये हैं। पातु कहती है कि मेरी दारु मंहगी है। पूरे मेवाड में कहीं नहीं मिलेगी। केसर कस्तूरी से भी अच्छी है यह, तुम नहीं खरीद सकोगे। नियाजी और सवाई भोज अपने घोड़े के सोने के जेवर उतारकर पातु को देते हैं और दारु देने के लिये कहते हैं। पातु दारु देने से पहले सोने के जेवर सुनार के पास जांचने के लिए भेजती है। सुनार सोने की जांच करता है और बताता है कि जेवर बहुत कीमती है। जेवर की परख हो जाने के बाद पातु नौलखा बाग में बैठाकर बगड़ावतों को दारु देती है। इधर माली की शिकायत सुनकर रावजी नीमदेवजी को नौलखा बाग में भेजते हैं। रास्ते में उन्हें नियाजी दिखते हैं जो अपने घोड़े के ताजणे से एक सूअर का शिकार कर रहेहोते हैं। नीमदेवजी यह देखकर उनसे प्रभावित हो जाते हैं और पास जाकर उनका परिचय लेते हैं। यहीं नियाजी और नीमदेवजी की पहली मुलाकात होती है।

बगड़ावत भारत 3

बगड़ावत_कथा__3
अपनी बारह औरतों से बाघ जी की २४ सन्तानें होती हैं। वह बगड़ावत कहलाते हैं। बगड़ावत गुर्जर जाति से सम्बंध रखते थे। इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। और बड़े पैमाने पर इनका पशु पालन का कारोबार था। वह इस कार्य में प्रवीण थे और उन्होनें अपनी गायों की नस्ल सुधारी थी। उनके पास बहुत बढिया नस्ल की गायें थी। गाथा के अनुसार काबरा नामक सांड उत्तम जाति का सांड था। उनके पास ४ बढिया नस्ल की गायें थी जिनमें सुरह, कामधेनु, पारवती और नांगल गायें थी। इनकी हिफाजत और सेवा में ये लोग लगे रहते थे। बगड़ावत भाईयों में सबसे बड़े तेजाजी, सवाई भोज, नियाजी, बहारावत आदि थे। सवाई भोज की शादी मालवा में साडू माता के साथ होती है। साडू माता के यहां से भी दहेज में बगड़ावतों को पशुधन मिलता है। एक ग्वाला जिसका नाम नापा ग्वाल होता है उसे बगड़ावत साडू के पीहर मालवा से लाते है। नापा ग्वाल इनके पशुओं को जंगल में चराने का काम करता था। इसके अधीन भी कई ग्वाले होते है जो गायों की देखरेख करते थे। गाथा के अनुसार बगड़ावतों के पास १,८०,००० गायें और १४४४ ग्वाले थे। एक बार बगड़ावत गायें चराकर लौट रहे होते हैं तब उन गायों में एक गाय ऐसी होती है जो रोज उनकी गायों के साथ शामिल हो जाती थी और शाम को लौटते समय वह गाय अलग चली जाती है। सवाई भोज यह देखते हैं कि यह गाय रोजअपनी गायों के साथ आती है और चली जाती है। यह देख सवाई भोज अपने भाई नियाजी को कहते हैं कि इस गाय के पीछे जाओ और पता करो की यह गाय किसकी है और कहां से आती हैं? इसके मालिक से अपनी ग्वाली का मेहनताना लेकर आना। नियाजी उस गाय के पीछे-पीछे जाते हैं। वह गाय एक गुफा में जाती हैं। वहां नियाजी भी पहुंच जाते हैं और देखते है कि गुफा में एक साधु (बाबा रुपनाथजी) धूनी के पास बैठे साधना कर रहे हैं। नियाजी साधु से पूछते हैं कि महाराज यह गाय आपकी है। साधु कहते है, हां गाय तो हमारी ही है। नियाजी कहते है आपको इसकी गुवाली देनी होगी। यह रोज हमारी गायों के साथ चरने आती है। हम इसकी देखरेख करते हैं। साधु कहता है अपनी झोली माण्ड। नियाजी अपनी कम्बल की झोली फैलाते हैं। बाबा रुपनाथजी धूणी में से धोबे भर धूणी की राख नियाजी की झोली में डाल देते हैं। नियाजी राख लेकर वहां से अपने घर की ओर चल देते हैं।रास्ते में साधु के द्वारा दी गई धूणी की राख को गिरा देते हैं और घर आकर राख लगे कम्बल को खूंटीं पर टांक देते हैं। जब रात होती है तो अन्धेरें में खूंटीं परटंगे कम्बल से प्रकाश फूटता है। तब सवाई भोज देखते हैं कि उस कम्बल में कहीं-कहीं सोने एवं हीरे जवाहरात लगे हुए हैं तो वह नियाजी से सारी बात पूछते हैं। नियाजी सारी बात बताते हैं। बगड़ावतों को लगता है कि जरुर वह साधु कोई करामाती पहुंचा हुआ है। यह जानकर कि वो राख मायावी थी, सवाई भोज अगले दिन उस साधु की गुफा में जाते हैं और रुपनाथजी को प्रणाम करके बैठ जाते हैं, और बाबा रुपनाथजी की सेवा करते हैं। यह क्रम कई दिनो तक चलता रहता है। एक दिन बाबा रुपनाथजी निवृत होने के लिये गुफा से बाहर कहीं जाते हैं। पीछे से सवाई भोज गुफा के सभी हिस्सो में घूम फिर कर देखते हैं। उन्हें एक जगह इन्सानों के कटे सिर दिखाई देते हैं। वह सवाई भोज को देखकर हंसते हैं। सवाई भोज उन कटे हुए सिरों से पूछते हैं कि हँस क्यों रहे हो? तब उन्हें जवाब मिलता है कि तुम भी थोड़े दिनों में हमारी जमात में शामिल होनेवाले हो, यानि तुम्हारा हाल भी हमारे जैसा ही होने वाला है। हम भी बाबा की ऐसे ही सेवा करते थे। थोड़े दिनों में ही बाबा ने हमारे सिर काट कर गुफा में डाल दिए। ऐसा ही हाल तुम्हारा भी होने वाला है।यह सुनकर सवाई भोज सावधान हो जाते हैं। थोड़ी देर बाद बाबा रुपनाथ वापस लौट आते हैं और सवाई भोज से कहते हैं कि मैं तेरी सेवा से प्रसन्न हुआ।आज मैं तेरे को एक विद्या सिखाता हूं। सवाई भोज से एक बड़ा कड़ाव और तेल लेकर आने के लिये कहते हैं। सवाई भोज बाबा रुपनाथ के कहे अनुसार एक बड़ा कड़ाव और तेल लेकर पहुंचते हैं। बाबा कहते हैं कि अलाव (आग) जलाकर कड़ाव उस पर चढ़ा दे और तेल कड़ाव में डाल दे। तेल पूरी तरह से गर्म हो जाने पर रुपनाथजी सवाई भोज से कहते हैं कि आजा इस कड़ाव की परिक्रमा करते हैं। आगे सवाई भोज और पीछे बाबा रुपनाथजी कड़ाव की परिक्रमा शुरु करते हैं। बाबा रुपनाथ सवाईभोज के पीछे-पीछे चलते हुये एकदम सवाईभोज को कड़ाव में धकेलने का प्रयत्न करते हैं। सवाईभोज पहले से ही सावधान होते हैं, इसलिए छलांग लगाकर कड़ाव के दूसरी और कूद जाते हैं और बच जातेहैं। फिर सवाईभोज बाबा रुपनाथ से कहते हैं महाराज अब आप आगे आ जाओ और फिर से परिक्रमा शुरु करते हैं। सवाईभोज जवान एवं ताकतवर होते हैं। इस बार वह परिक्रमा करते समय आगे चल रहे बाबा रुपनाथ को उठाकर गर्म तेल के कड़ाव में डाल देते हैं।
अगला भाग कल पोस्ट किया जायेगा