शनिवार, 23 सितंबर 2017

ब्लूचिस्तान में हिन्दू

इस्लामाबाद, मई 20 : बंटवारे से पहले पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत की आर्थिक समृद्धि और विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाला हिंदू समुदाय आज अशांत हो चुके क्षेत्र में खतरनाक परिस्थितियों में जीने की विवशता के साथ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। स्थानीय इतिहासकारों के मुताबिक इस इलाके में हिंदू बौद्ध मतावलंबियों के समय से ही रह रहे हैं।
पाकिस्तान के मशहूर स्तंभकार मोहम्मद अकबर नोतेजाई का कहना है कि अरबों के 712 ई में आक्रमण करने से पूर्व हिंदू बलूचिस्तान पर शासन करते थे।
अपने लेख 'बलूचिस्तानी हिंदुओं का संकट' में नोतेजाई ने लिखा है, "हिंदुओं को नीची जाति का माना जाता है। उनके साथ गैर बराबरी का बर्ताव किया जाता है और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है। वे पृथक क्षेत्रों में अलग-थलग रह रहे हैं। उन्हें मतदान का अधिकार नहीं है। उनके बच्चों की शिक्षा की स्थिति अत्यंत दयनीय है।"
बलूचिस्तान में हिंदुओं के दो पवित्र धार्मिक स्थल हैं। लासबेला जिले में हिंगलाज तीर्थ और कलात कस्बे में काली देवी का मंदिर।
बंटवारे के दौरान पूरा उपमहाद्वीप सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गया था, लेकिन बलूचिस्तान रियासत में हिंदू सौहाद्र्रतापूर्वक और शांतिपूर्वक रहे। यह इलाका कलात जागीर यार मोहम्मद खान के शासन में था।
स्थानीय शासक खान हिंदुओं की स्थानीयता का सम्मान करते थे और उन्हें आर्थिक और धार्मिक आजादी दे रखी थी। यही कारण था कि हिंदुओं ने विभाजन के समय बलूचिस्तान छोड़ना मुनासिब नहीं समझा।
हिंदू बलूचों और पश्तूनों के साथ सौहार्द्रतापूर्वक रहते थे फिर भी कई हिंदू परिवार बलूचिस्तान के पश्तून इलाके को छोड़ कर बलूचों के असर वाले इलाके में चले आए या फिर बंटवारे के बाद भारत चले गए। 1941 में बलूचिस्तान के पश्तून पट्टी में हिंदुओं की आबादी 54000 थी जिसमें 1947 के बाद 93 प्रतिशत कमी आई।
महशूर हिंदू बुद्धिजीवी शाम कुमार का हवाला देते हुए नोतेजाई लिखते हैं कि हिंदू अब बलूच रिहायशी इलाकों में बदतर स्थितियों का सामना कर रहे हैं।
इसका कारण यह है कि हिंदुओं के प्रति सम्मान का भाव रखने वाले बलूच अब इस दुनिया में नहीं रहे या फिर वे अत्यंत बुजुर्ग हो चले हैं।

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