पंचायतें: इतिहास,वर्तमान, एवं सुधार की आवश्यकता-1
@ सुनील सत्यम
भारत में पंचायतों
का इतिहास काफी पुराना है। नवीन दृष्टिकोण से देखें तो हड़प्पा काल में नागरिक शासन का
प्रमुख रूप नगर-पंचायतों के रूप में ही सामने आया । केंद्रीकृत शासन की कल्पना तत्कालीन
संदर्भों में तार्किक नही है। अतः हड़प्पा, मोहनजोदड़ों, राखीगढ़ी, लोथल एवं धोलावीरा का नगर-पंचायतों (पालिकाओं)
के रूप में ही विकास हुआ था। वैदिक साहित्य मे भी पंचायतों का सभा,समिति एवं विदथ के रूप में अस्तित्व था। सभा को “नरिष्ठा” कहा गया है अर्थात
इसके निर्णय की अवहेलना नहीं की जा सकती थी। निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते थे।
वैदिक साहित्य में ग्राम पंचायत के प्रमुख के लिए “ग्रामणी” शब्द का उल्लेख किया गया
है।ऋग्वेद मे सभा और समिति को प्रजापिता की दो पौत्रियों के रूप मे महत्व दिया गया
है। पाणिनी ने भी अपनी कालजयी पुस्तक “अष्टाध्यायी” में गराजयों का विवरण दिया है।मौर्यकाल मे ग्राम एवं नगर-पंचायत के गठन एवं कार्यों
का विशद विवरण मिलता है। ग्राम पंचायत का प्रमुख ग्राम-भोजक कहलाता था जिसका कार्य
अभियोगों का निर्णयन, जुआँ तथा मध्य निषेद एवं पशु हिंसा पर रोक
लगाना आदि था। मेगास्थनीज ने पाटलिपुत्र की नगर व्यवस्था का रोचक विवरण मिलता है जिसका
संचालन 30 सदस्यों से निर्मित 6 प्रमुख समितियों द्वारा किया जाता था। इनमे से एक समिति
का कार्य जनगणना करने का था जो आज के संदर्भ मे अत्यंत महत्वपूर्ण है।चाणक्य ने अर्थशास्त्र में पंचायत व्यवस्था का विस्तृत वर्णन किया है। चौरोद्धर्णिक मौर्यकाल का एक ग्राम स्तर
का अधिकारी था जिससे चौधरी शब्द की उत्पत्ति हुई। इसका कार्य ग्राम मे चौरों का पता
लगाकर समस्या का निवारण करना था। पालि साहित्य में भी समितियों का वृहद उल्लेख मिलता
है। समितियों का चुनाव नागरिकों के मध्य से किया जाता था। समितियों की कार्यपददती का
स्पष्ट विवरण बौद्ध साहित्य में मिलता है। विदथ की बैठकों मे महिलाओं की भागीदारी भी उल्लेखनीय
है। गुप्तकाल मे भी पंचायतें कई रूपों में अस्तित्वमान रही जैसे श्रेणियाँ। व्यवस्थित
रूप में पंचायतों का विकास चोल काल में हुआ। चोल काल में पंचायतें समितियों के रूप में कार्य करती थी। चोलकालीन प्रसिद्द उत्तरमेरुर
लेख से चोलकालीन पंचायत व्यवस्था का व्यापक विवरण मिलता है। चोल काल में स्थानीय स्वशासन
का जो विकास हुआ वैसा दुनिया के किसी अन्य देश में देखने को नहीं मिला है। चोलकाल में ग्राम
स्वशासन की पूर्ण इकाई थे, ग्रामवासी अपने मध्य से लोकतान्त्रिक तरीके से चुने सदस्यों के माध्यम से
ग्राम का प्रशासन स्वयं संचालित करते थे। चोल शासकों के विभिन्न अभिलेखों से इस
व्यवस्था पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है।
उत्तरमेरुर
अभिलेख के अनुसार ग्राम को प्रशासनिक दृष्टि से कई भागों में विभाजित कर दिया जाता
था।जैसे उपवन,सिंचाई, आदि। निर्धारित
योग्यता रखने वाले एक व्यक्ति को ही किसी समिति के लिए सदस्य चुना जाता था। समिति का
सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यता आवश्यक थी- (1) सदस्य संबन्धित
ग्राम का मूलनिवासी हो। (2) उसकी आयु 35 और 70 वर्ष के बीच हो। (3) एक-चौथाई
वेलि (लगभग डेढ़ एकड़) से अधिक भूमि का स्वामी हो। (4) वह स्वयं
की भूमि पर बनाये मकान में रहता हो। (5) वेदत्रयी का ज्ञाता हो, वैदिक मन्त्रों और ब्राह्मण ग्रन्थों का सम्यक ज्ञान रखता हो।कोई व्यक्ति
का सदस्य नही चुना जा सकता था यदि वह:
1. पिछले
तीन वर्षों से किसी समिति का सदस्य रहा हो।
2. उसने सदस्य
के रूप में आय-व्यय का लेखा-जोखा अपने विभाग को न दिया हो।
3. भयंकर
अपराधों में लिप्त रहा हो।
इस प्रकार
निर्वाचन हेतु सभी शर्तें पूरी करने वाले व्यक्ति का लॉटरी प्रणाली से चयन किया जाता
था। उम्मीदवार सदस्यों के नाम ताडपत्र पर लिखकर एक घड़े डाल दिये जाते थे जिनमे से
किसी बालक द्वारा निकाले हुए पर्चे के आधार पर सदस्य का चुनाव हो जाता था। इन सदस्यों का कार्यकाल 1 वर्ष था। इन सदस्यों में 12 स्थायी समिति के,
12 उपवन समिति के और 7 तालाब समिति के लिए
चुने जाते थे। समिति को वारियम कहते थे और यह ग्राम सभा के कार्यों का संचालन करती
थी। ग्राम सभा के कार्यों के लिए कई समितियां होती थीं।
ग्राम
सभा के अनेक कार्य थे। यह भूमिकर एकत्र करके सरकारी खजाने में जमा करती थी।
तालाबों और सिंचाई के साधनों का प्रबन्ध करती थी। ग्राम के मन्दिरों और सार्वजनिक
स्थानों की देखभाल, ग्रामवासियों के मुकदमों का फैसला करना,
ग्राम की सड़कों को बनवाना, ग्राम में औषधालय
खोलना, ग्राम के बाजारों और पेठों का प्रबन्ध करना, इत्यादि ग्राम सभा के कार्य थे।
ग्राम
सभा की बैठक मन्दिर अथवा किसी बड़े वृक्ष के नीचे होती थी। राज्य ग्राम पंचायतों के
मामलों हस्तक्षेप नहीं करता था। स्पष्ट है कि ग्राम स्थानीय स्वशासन की एक मूल इकाई
था।
व्यापारियों
से संबंधित हितों की देखभाल हेतु-मणिग्रामम्, वलंजियार, नानादेशी जैसे समूह थे। धार्मिक हित समूहों में मूलपेरूदियार था। यह मंदिरों की व्यवस्था
की निगरानी करता था। संपूर्ण साम्राज्य मंडलों (प्रान्तों) में बंटा हुआ था।
प्रान्तों का विभाजन वलनाडु या नाडु में होता था। उसके नीचे गांव का समूह कुर्रम
या कोट्टम कहलाता था। सबसे नीचे गांव था। ग्राम की स्थिति पट्टे के अनुसार भिन्न
प्रकार की होती थी। गांवों की तीन श्रेणियाँ थीं- ऐसे ग्राम सबसे ज्यादा होते थे
जिनमें अंतर्जातीय आबादी होती थी एवं जो भू-राजस्व थे। सबसे कम संख्या में ऐसे
ग्राम होते थे जो ब्रह्मदेय कहलाते थे एवं इनमें पूरा ग्राम या ग्राम की भूमि किसी
एक ब्राह्मण समूह को दी गई होती थी। ब्रह्मदेय से संबंधित अग्रहार अनुदान होता था
जिसमें ग्राम ब्राह्मण बस्ती होता था एवं भूमि अनुदान में दी गई होती थी। ये भी कर
मुक्त थे, किन्तु ब्राह्मण अपनी इच्छा से नि:शुल्क शिक्षा की
व्यवस्था कर सकते थे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें