हड़प्पा
में अधिशेष एवं नगरीकरण
@सुनील
सत्यम
कृषि
अधिशेष उत्पादन की हड़प्पाई नगरीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। कृषि अधिशेष ने
गैर-कृषक वर्गों के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कृषि अधिशेष उत्पादन ने
निश्चय ही अनेक वर्गों जैसे शिल्पी,कुम्हार एवं अन्य गैर उत्पादक वर्गों यथा सफाई कर्मी,पुरोहित,नगर प्रहरियों आदि को
आजीविका आधार प्रदान किया । लेकिन जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है कि यह
अधिशेष उत्पादन बलपूर्वक, ग्रामीणों
से नही उगाहा जाता था वरन एक स्वाभाविक आर्थिक प्रक्रिया के माध्यम से नगरों में
पहुँचता था । वास्तव में ग्रामीण कृषि अधिशेष उत्पादन को दो प्रकार से प्रयोग करते
थे।
*1- भविष्य की खाद्य अवश्यकताओं
के लिए संग्रहण
*2- दैनिक अवश्यकता की कृषि एवं
गैर-कृषि वस्तुओं के विनिमय हेतु खर्च करने में--
दैनिक
अवश्यकता की कृषि एवं गैर-कृषि वस्तुओं के विनिमय हेतु खर्च करने के लिए नगर मे
स्वयं जाकर वस्तु विनिमय तथा फेरि वालों से गाँव मे ही वस्तु विनिमय में खर्च।
1- भविष्य
की खाद्य अवश्यकताओं के लिए संग्रहण:- हड़प्पा सभ्यता के
अधिकांश
स्थलों से कोष्ठागार मिले हैं। नगरों में हड़प्पा एवं मोहनजोदडों की भांति कुछ बड़े
अन्नागार प्राप्त हुए हैं। ग्रामीण स्थलों से घरों के अंदर माठ,कुठले एवं भूमिगत कोठियों
के पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। अभी भी देश के सुदूर ग्रामीण
क्षेत्रों में लोग खाध्यान्न भंडारण के लिए इनका प्रयोग करते हैं। ग्रामीण
हड़प्पावासी अपनी खाध्यान्न संबंधी भविष्य की जरूरतों के लिए अधिशेष उत्पादन का कुछ
भाग संग्रहीत करके रखते थे ताकि वे आगामी फसल तक अपनी भोजन संबंधी जरूरतें पूरी कर
सकें। अभी तक किसी हड़प्पाई स्थल से धातु निर्मित हल का फाल प्राप्त होने के समाचार
नही मिले हैं। इससे यह
सामान्य निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हड़प्पावासी लकड़ी के बने हल का प्रयोग करते
थे।चोलिस्तान के कई स्थलों तथा बानावाली (हरियाणा) से मिट्टी के बने हल के
पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं ।
अनेक मुहरों पर किया गया रेखांकन तथा मृणमूर्तियाँ संकेत करती हैं कि हड़प्पावासी
वृषभ(बैल) से परिचित थे तथा हल जोतने में बैलों का प्रयोग करते थे। आरंभिक हड़प्पाई
स्तर से संबन्धित कालीबंगा से हल से जुते हुए खेत का साक्ष्य भी हल द्वारा जुताईं का प्रमाण है।
पुरातात्विक साक्ष्य एक साथ दो फसल उगाने का इशारा करते हैं लेकिन यह संदिग्ध है
और इसे साक्ष्यों के आधार पर प्रमाणित करना कठिन है।
लकड़ी का
हल गहरी जुताई करने में सक्षम नही था। अतः यह मानना तर्क संगत नही होगा कि हड़प्पाई
भारी मात्रा में अधिशेष अन्न उत्पादन करने में सफल रहे हों। कम से कम यह अधिशेष
इतना तो नहीं था कि इसके आधार पर एक विशाल एवं सुव्यवस्थित स्थायी राजसत्ता अस्तित्व में आ
सके । किसी स्थायी या अस्थाई सेना के अस्तित्व के साक्ष्यों का अभाव भी इस बात को
प्रमाणित करता है कि कृषि अधिशेष बहुत ज्यादा नही था। राज्य इतना सक्षम अभी तक नही
हुआ था कि वह वेतन के रूप में अनाज देकर सेना का रख रखाव कर सकें । सेना के साथ ही
राजसत्ता के अन्य तत्वों को भी भुगतान करना पड़ता है, जो संभव प्रतीत नही होता है। अतः यह माना जा सकता
है कि हड़प्पा में राज्य-तत्व सीमित था। उसका विस्तार एवं प्रभुसत्ता अत्यंत सीमित
था। नगरों के बाहर ग्रामीण क्षेत्र किसी भी राज्य की संप्रभुता की सीमा में नहीं
थे। नगरों के शासक सिर्फ नगर प्रमुख थे।नगरीय सीमा ही उनके आदेशों की भी सीमा थी,इन्ही नगरों के वे संप्रभु
शासक थे। ग्राम उनकी सत्ता से बाहर थे, ग्रामीण जीवन राजकीय आदेशों से अछूता रहा होगा। इससे यह निष्कर्ष
निकालना तार्किक एवं उचित रहेगा कि हड़प्पा कि राजसत्ता सबसे पहले नगर-पालिकाओं के
रूप मे विकसित हुए।हड़प्पा, मोहंजोदड़ों, धोलावीरा,राखीगढ़ी ,लोथल आदि इस सभ्यता कि
प्रतिनिधि नगर-पालिकाएं थी। यह इस तथ्य से भी प्रमाणित होता है कि इन सभी
नगर-पालिकाओं मे समान नागरिक सुविधाओं जैसे सुनियोजित नगरीकरण, चौड़ी सड़के, व्यवस्थित जल निकासी आदि एक
समान प्रतिरूप मे विकसित हो पाई जिनका ग्रामीण अधिवासों मे अभाव था क्योंकि ग्राम
पंचायत जैसी व्यवस्था उस सामी टीके विकसित नहीं हुई थी अथवा विकास कि शैशवावस्था
में थी।
दैनिक
आवश्यकता की वस्तुओं के विनिमय के लिए अधिशेष का प्रयोग;-
कृषि
अधिशेष के एक भाग का प्रयोग हड़प्पावासी अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
करते थे। उन्हें भोजन पकाने के लिए विभिन्न प्रकार के मृदभांड जैसे हांडी,मिट्टी की थाली या प्लेट,अन्य संग्रहण पात्रों-माठ, बड़े जार, मृणमूर्तियों, बच्चों के लिए खिलौनों एवं
अन्य वस्तुओं की जरूरत पड़ती थी।अपनी इन आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए ग्रामीण
समुदाय कृषि अधिशेष के साथ विनिमय करता था। यह विनिमय वह दो प्रकार से करता था:-:-
1- नगरों
में जाकर स्वयं विनिमय
2- गाँव में
आने वाले फेरीवालों से वस्तु विनिमय
इस
प्रकार ग्रामों से कृषि अधिशेष शहरों में जाने की प्रक्रिया द्विमार्गी थी।
वर्ष के अंत तक अधिशेष का अधिकांश भाग नगरों में पहुँच जाता था। इसी अधिशेष के बल
पर अनेक हड़प्पाई नगर फले-फूले और उनकी "नगर पालिकाएं" विकसित
हुई।
नगरों
द्वारा ग्रामीणों से अधिशेष प्राप्ति की यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसके लिए किसी
हथियार या आक्रमण की जरूरत नही थी। इतना ही नहीं ग्रामीण लोग, अधिशेष के जिस भाग को अपनी
भविष्य की खाद्यान्न आवश्यकताओं के लिए संग्रहीत करके रखते थे, वह भी कई बार मजबूरी में
विनिमय हेतु खर्च करना पड़ जाता था और बाकी के दिन कंद-मूल पर अथवा शिकार करके जीवन
निर्वाह करना पड़ता होगा। इसके अतिरिक्त हड़प्पा में मिले श्रमिक आवास के
पुरातात्विक साक्ष्य इस बात का भी संकेत करते है कि अधिशेष कृषि उत्पादन
के अगली फसल से पहले समाप्त हो जाने पर ग्रामीण लोग समीपी नगरों में मजदूरी भी
करते होंगे। नगरों में श्रम करने वाले अधिकांश श्रमिक ग्रामीण जन ही रहे होंगे।
मौसम की मार एवं समय से पहले अधिशेष खाद्यान्न की समाप्ती ऐसे कारक थे जिनके कारण
ग्रामीणों को जीवन निर्वाह के लिए मजदूरी का सहारा लेना पड़ता होगा। मजदूर
सामान्यतः बस्ती से बाहर रहते थे उनका जीवन काफी कठिन एवं श्रमसाध्य था।
अधिशेष
का प्रयोग एवं वितरण
कृषि
अधिशेष उत्पादन की हड़प्पाई नगरीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। कृषि अधिशेष ने
गैर-कृषक वर्गों के उदय मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कृषि अधिशेष उत्पादन ने
निश्चय ही अनेक वर्गों जैसे शिल्पी,कुम्हार एवं अन्य गैर उत्पादक वर्गों यथा सफाई कर्मी,पुरोहित,नगर प्रहरियों आदि को
आजीविका आधार प्रदान किया । लेकिन जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है कि यह
अधिशेष उत्पादन बलपूर्वक, ग्रामीणों
से नही उगाहा जाता था वर्ण एक स्वाभाविक आर्थिक प्रक्रिया के माध्यम से नगरों ने
पहुँचता था । वास्तव मे ग्रामीण कृषि अधिशेष उत्पादन को दो प्रकार से प्रयोग करते
थे।
कृषि अधिशेष
* भविष्य
की खाद्य अवश्यकताओं के लिए संग्रहण
* दैनिक
अवश्यकता की कृषि एवं गैर-कृषि वस्तुओं के विनिमय हेतु खर्च करने में--नगर मे
स्वयं जाकर वस्तु विनिमय तथा फेरि वालों से गाँव मे ही वस्तु विनिमय में खर्च।
1- भविष्य
की खाद्य अवश्यकताओं के लिए संग्रहण:- हड़प्पा सभ्यता के
अधिकांश
स्थलों से कोष्ठागार मिले हैं। नगरों मे हड़प्पा एवं मोहनजोदडों की भांति कुछ बड़े
अन्नागार प्राप्त हुए हैं। ग्रामीण स्थलों से घरों के अंदर माठ,कुठले एवं भूमिगत कोठियों
के पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। अभी भी देश के सुदूर ग्रामीण
क्षेत्रों मे लोग खाध्यान्न भंडारण के लिए इनका प्रयोग करते हैं। ग्रामीण
हड़प्पावासी अपनी खाध्यान्न संबंधी भविष्य की जरूरतों के लिए अधिशेष उत्पादन का कुछ
भाग संग्रहीत करके रखते थे ताकि वे आगामी एफ़एसएल तक अपनी भोजन संबंधी जरूरतें पूरी
कर सकें। अभी तक किसी हड़प्पाई स्थल से धातु निर्मित हल का फाल प्राप्त होने के
समाचार नही मिले हैं। इससे यह
सामान्य निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हड़प्पावासी लकड़ी के बने हल का प्रयोग करते
थे।चोलिस्तान के कई स्थलों तथा बानावाली (हरियाणा) से मिट्टी के बने हल के
पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं ।
अनेक मुहरों पर पर किया गया रेखांकन तथा मृणमूर्तियाँ संकेत
करती हैं कि हड़प्पावासी वृषभ(बैल) से परिचित थे तथा हल जोतने मे बैलों का प्रयोग
करते थे। आरंभिक हड़प्पाई स्तर से संबन्धित कालीबंगा से हल से जुते हुए खेत का
साक्ष्य भी हल द्वारा जुताईं का प्रमाण है। पुरातात्विक साक्ष्य एक साथ दो फसल
उगाने का इशारा करते हैं लेकिन यह संदिग्ध है और इसे साक्ष्यों से आधार पर
प्रमाणित करना कठिन है।
लकड़ी का
हल गहरी जुटाई करने मे सक्षम नही
था। अतः यह मानना तर्क संगत नही होगा कि हड़प्पाई भारी मात्रा मे
अधिशेष अन्न उत्पादन मे सफल रहे हों। कम से कम यह अधिशेष इतना तो नहीं था कि इसके
आधार पर एक विशाल एवं
सुस्थापित स्थायी राजसत्ता अस्तित्व मे आ सके । किसी स्थायी या अस्थाई सेना के
अस्तित्व के साक्ष्यों का अभाव भी इस बात को प्रमाणित करता है कि कृषि अधिशेष बहुत
ज्यादा नही था। राज्य इतना सक्षम अभी तक नही हुआ था कि वह वेतन के रूप मे अनाज
देकर सेना का रख रखाव कर सकें । सेना के साथ ही राजसत्ता के अन्य तत्वों को भी
भुगतान करना पड़ता है, जो संभव
प्रतीत नही होता है। अतः यह माना जा सकता है कि हड़प्पा मे राज्य-तत्व सीमित था।
उसका विस्तार एवं प्रभुसत्ता अत्यंत सीमित था। नगरों के बाहर ग्रामीण क्षेत्र किसी
भी राज्य कि संप्रभुता कि सीमा मे नहीं थे। नगरों के शासक सिर्फ नगर प्रमुख
थे।नगरीय सीमा ही उनके आदेशों कि भी सीमा थी,इनहि नगरों के वे संप्रभु शासक थे। ग्राम उनकी सत्ता से बाहर थे, गरमीन जीवन राजकीय आदेशों
से अछूता रहा होगा।
दैनिक
आवश्यकता की वस्तुओं के विनिमय के लिए अधिशेष का प्रयोग;-
कृषि
अधिशेष के एक भाग का प्रयोग हड़प्पावासी अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
करते थे। उन्हे भोजन पकाने के लिए विभिन्न प्रकार के मृदभांड जैसे हांडी,मिट्टी की थाली या प्लेट,अन्य संग्रहण पात्रों-माठ, बड़े जार, मृणमूर्तियों, बच्चों के लिए खिलौनों एवं
अन्य वस्तुओं की जरूरत पड़ती थी।अपनी इन आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए ग्रामीण
समुदाय कृषि अधिशेष के साथ विनिमय करता था। यह विनिमय वह दो प्रकार से करता था:-:-
1- नगरों मे
जाकर स्वयं विनिमय
2- गाँव मे
आने वाले फेरीवालों से वस्तु विनिमय
इस
प्रकार ग्रामों से कृषि अधिशेष शहरों मे जाने की प्रक्रिया द्विमार्गी थी।
वर्ष के अंत तक अधिशेष का अधिकांश भाग नगरों मे पहुँच जाता था। इसी अधिशेष के बल
पर अनेक हड़प्पाई नगर फले-फूले और उनकी "नगर पालिकाएं" विकसित
हुई।
नगरों
द्वारा ग्रामीणों से अधिशेष प्राप्ति की यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसके लिए किसी
हथियार या आक्रमण की जरूरत नही थी। इतना ही नहीं ग्रामीण अधिशेष के जिस भाग को
अपनी भविष्य की खाद्यान्न आवश्यकताओं के लिए संग्रहीत करके रखते थे, वह भी कई बार मजबूरी मे
विनिमय हेतु खर्च करना पड़ जाता था और बाकी के दिन कंद-मूल पर अथवा शिकार करके जीवन
निर्वाह करना पड़ता होगा। इसके अतिरिक्त हड़प्पा मे मिले श्रमिक आवास के पुरातात्विक
साक्ष्य इस बात का भी संकेत करते है कि अधिशेष कृषि उत्पादन के अगली फसल से
पहले समाप्त हो जाने पर ग्रामीण लोग समीपी नगरों मे मजदूरी भी करते होंगे। नगरों
मे श्रम करने वाले अधिकांश श्रमिक ग्रामीण जन ही रहे होंगे। मौसम कि मार एवं समय
से पहले अधिशेष खाद्यान्न कि समाप्ती ऐसे कारक थे जिनके कारण ग्रामीणों को जीवन
निर्वाह के लिए मजदूरी का सहारा लेना पड़ता होगा। मजदूर सामनी बस्ती से बाहर रहते
थे उनका जीवन काफी कठिन एवं श्रमसाध्य था।
अधिशेष कृषि उत्पादन एवं हड़प्पा मे नगरीकरण
हड़प्पा के ग्रामीण क्षेत्रों से
द्विमार्गी प्रक्रिया के माध्यम से अधिशेष खाध्यान्न उत्पादन के नगरों में
स्थानांतरण हो जाता था। वास्तव मे इन नगर केन्द्रों का पहले हाट बाज़ारों के रूप मे
उदय हुआ होगा जिन्होने विकसित होकर नगरों का रूप ले लिया। ग्रामीण क्षेत्रों से
नगरीय क्षेत्रों मे पहुंचे इस अधिशेष कृषि उत्पादन के बलबूते नगरीय व्यापार
फला-फूला और यहाँ के व्यापारी समृद्ध होते चले गए। उनका जीवन विलासितापूर्ण होता चला
गया। विलासितापूर्ण जीवन की चाह एवं विलासिता की वस्तुओं ने कुछ व्यापारियों को
व्यापार की एक नई विधा अपनाने के लिए प्रेरित किया होगा। इन व्यापारियों ने कीमती
धातुओं एवं बहुमूल्य पत्थरों, क्षृंगार सामाग्री,आदि का व्यापार करना प्रारम्भ कर दिया। वांछित वस्तुओं की खोज में ये
व्यापारी लंबी दूरी के व्यापार मे संलल्ग्न हो गए। इस प्रकार अंतर्राज्यीय एवं
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार प्रारम्भ हो गया । हड़प्पा के व्यापारी मिश्र,मेसोपोटामिया,मकन तथा दिलमुन तक आगे बढ़ गए। नगरीय
व्यापारियों के पास भारी मात्रा में अधिशेष उत्पादन जमा हो जाता था। सुरक्षा एवं
प्रशासन संबंधी आवश्यकताओं ने नगरीय शासक वर्ग को जन्म दिया तथा इस प्रकार नगर
पंचायतों अथवा नगर-पालिकाओं का विकास हुआ। नगर प्रमुख, नगर
वासियों से, उनको प्रदत्त सुविधाओं जैसे सुरक्षा, सफाई,सड़क निर्माण के बदले अंशदान,कर एवं नजराना प्राप्त करते थे। यह निश्चित ही अन्न के रूप मे होता था, क्योंकि हड़प्पा निवासियों द्वारा अभी तक किसी व्यवस्थित मुद्रा प्रणाली
के अस्तित्व के साक्ष्य प्राप्त नही हुए हैं। इस प्रकार कर आदि के रूप मे संग्रहीत
इस अन्न को को विशाल अन्नागारों मे सुरक्षित रखा जाता था। नगर निवासी समान्यतः
शिल्पी तथा व्यापारी होते थे जो अपने बीच से ही किसी अज्ञात विधि द्वारा नगर
प्रमुख
एवं अन्य सहायक अधिकारी
वीआरजी का चुनाव करते थे। शायद उसी प्रकार जैसे चोल काल में। इस प्रकार निर्मित
येँ नगर-पालिकाएं नगरों के सुचारु संचालन हेतु नियम-विनियम बनाती थी। नगरपालिका का सर्वप्रमुख कार्य था
नगर-नियोजन तथा सुरक्षा। आपातकाल जैसे
सूखा एवं अकाल में राहत सामाग्री के रूप में नगरवासियों में अनाज वितरण का कार्य
भी नगरपालिकाएं करती रही होंगी। नगर प्रमुख अथवा नगर शासक स्वयं भी व्यापारी रहे
होंगे क्योंकि वे स्वयं व्यापारियों मे से ही चुने जाते थे। नगरपालिकाओं का उदय
नगरवासियों की सामूहिक आवश्यकताओं के परिणामस्वरूप ही हुआ था। ये आवश्यकताएँ
निम्नलिखित थी:-
· नगरों
का सुचारु रूप से संचालन एवं प्रबंधन
· व्यापार
प्रबंधन
· सुरक्षा
1- जंगली
जानवरों से
2- ग्रामीणों/चोर-लुटेरों
से
इन नगरपालिकाओं ने हड़प्पाई
नगर-नियोजन मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नगरों की स्थापना के समय से ही संभवतः ये
नगरपालिकाएँ सक्रिय रहती थी। इसी के परिणामस्वरूप दुनिया की प्रथम नगरीय सभ्यता
अस्तित्व मे आई। सड़कें चौड़ी तथा एक दूसरे को समकोण चौराहों पर काटती थी। जल निकास
की उत्तम व्यवस्था तथा नगरों का समान्यतः शतरंजी प्रतिरूप, इन नगरपालिकाओं द्वारा निर्मित विनियमों द्वारा ही संभव हो पाया। विभिन्न
नगरों के नियोजन में समानता के आधार पर यह तर्क नही दिया जा सकता है कि सम्पूर्ण
हड़प्पाई क्षेत्र किसी केंद्रीय राज्यसत्ता द्वारा शासित होता होगा।लेकिन इन
नगरपालिकाओं के मध्य किसी ढीले-ढाले और सामाजिक संगठन कि संभावना से भी इंकार नही
किया जा सकता है।
इतनी समानताएं कैसे ?
अधिशेष उत्पादन हडप्पा
सभ्यता के सामाजिक-आर्थिक विकास का इंजन साबित हुआ। इसने व्यापक सामाजिक-आर्थिक
परिवर्तनों एवं एक राजनीतिक प्रक्रिया कि शुरुआत को जन्म दिया। ग्रामीण समाज
को यह लाभ हुआ कि अब उसका पेट भरने लगा
तथा उसकी दैनिक आवश्यकतायें भी पूरी होने लगी। लेकिन यह अधिशेष उत्पादन ग्रामीणों
को बहुत ज्यादा समृद्ध नहीं बना पाया क्योंकि इसकी मात्रा बहुत ज्यादा नही थी
क्योंकि लकड़ी के हल के द्वारा जुताई की अपनी एक सीमा थी। परंतु इस अधिशेष उत्पादन
से नगरीय व्यापारी वर्ग अत्यधिक समृद्ध हो गया। अधिशेष के अधिकांश भाग पर व्यापारी
वर्ग नियंत्रण स्थापित करने मे सफल हुआ और उसने इससे अत्यधिक लाभ कमाया। अधिकांश
नगर खाध्यान्नों के आगार बन गए। जहां विशाल अन्नागारों में, प्रचुर मात्रा में अनाजों का भंडार उपलब्ध रहता था। इसके विपरीत ग्रामीण
समुदाय अभी भी प्रायः अभावग्रस्त जीवन ही जीता रहा। क्योंकि वर्ष के अंत तक अधिशेष
अन्न भी समाप्त हो जाता रहा होगा जैसा कि आज भी ग्रामीण क्षेत्र के किसानों के बीच
देखने को मिलता है।
नगरों में विशाल अन्नागारों मे संग्रहीत
खाध्यान्नों कि सुरक्षा नगरपालिकाओं के लिए हमेशा चुनौतीपूर्ण कार्य रहा होगा।
क्योंकि अकाल,सूखा एवं भुखमरी तथा अन्य प्रकृतिक आपदाओं के
समय ग्रामीणों द्वारा खाध्यान्न प्राप्ति के लिए अकेले अथवा सामूहिक रूप से आक्रमण
किया जाता रहा होगा। ये विशाल अन्नागार ग्रामीण आक्रमणकारियों को ठीक उसी प्रकार
लालायित करते होंगे जैसे मध्यकालीन भारत के अत्यंत समृद्ध मंदिर एवं मठों ने
विदेशी आक्रांताओं को लालायित किया था। इसके अतिरिक्त घने जंगलों मे उपस्थित
खूंखार जंगली जानवरों का भी खतरा लगातार बना रहता था, जिससे
नगरीय सुरक्षा की अवश्यकता थी।
इन सभी कारणों ने
नगरवासियों को दुर्गीकरण के लिए प्रेरित किया। हड़प्पाई नगरों का दुर्गीकरण किसी
बाह्य आक्रमण अथवा किसी आक्रमणकारी सेना से सुरक्षा के लिए नही वरन ग्रामीण अनाज
लुटेरों और जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिए हुआ होगा। क्योंकि नगरीय समृद्धि अभाव
एवं असंतोष के कारण,ग्रामीण आक्रमणों को आकर्षित करती
होगी। घोड़े के पुरातात्विक साक्ष्य इतनी संख्या में नही मिले हैं कि यह माना जा
सके कि सुदूर क्षेत्रों से हड्प्पाई क्षेत्र की किसी नगरपालिका पर कोई संगठित
आक्रमण हुआ हो। घोड़े के पुरातात्विक साक्ष्यों का अल्प अथवा नगण्य संख्या में पाया
जाना, बाह्य आक्रमण द्वारा हड़प्पा सभ्यता के पतन को सीरे से
नकारने के लिए पर्याप्त है।
अंततः लंबी दूरी के व्यापार का विकास हुआ जैसा
कि पूर्व वर्णित है। विलासितापूर्ण जीवन की चाह एवं उससे जनित आवश्यकताओं ने लंबी
दूरी के व्यापार को प्रोत्साहित किया। उदाहरण के लिए चांदी जो एक बहुमूल्य धातु है, की प्राप्ति के लिए अफगानिस्तान के सुदूर क्षेत्रों तक हड़प्पाई
व्यापारियों ने यात्राएं की। लंबी दूरी के व्यापार ने सामाजिक सम्बन्धों का दायरा
विकसित किया। लोगों ने व्यापार के माध्यम से एक दूसरे के आचार-विचार को जाना,समझा,अपनाया होगा। इसका यह परिणाम हुआ होगा कि
नगर-नियोजन एव्न स्वच्छता, सभ्य होने कि पहचान से जुड़ गए
होंगे और ये सामान्य आचार-संहिता के अंग के रूप मे सामने आए होंगे जिनको एक
नगरपालिका से दूसरी ने व्यापारियों के माध्यम से अपनाया होगा।
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