मंगलवार, 12 सितंबर 2017

हड़प्पा सभ्यता एवं कृषि अधिशेष का प्रयोग एवं वितरण

अधिशेष का प्रयोग एवं वितरण
कृषि अधिशेष उत्पादन की हड़प्पाई नगरीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। कृषि अधिशेष ने गैर-कृषक वर्गों के उदय मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कृषि अधिशेष उत्पादन ने निश्चय ही अनेक वर्गों जैसे शिल्पी,कुम्हार एवं अन्य गैर उत्पादक वर्गों यथा सफाई कर्मी,पुरोहित,नगर प्रहरियों आदि को आजीविका आधार प्रदान किया । लेकिन जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है कि यह अधिशेष उत्पादन बलपूर्वक, ग्रामीणों से नही उगाहा जाता था वर्ण एक स्वाभाविक आर्थिक प्रक्रिया के माध्यम से नगरों ने पहुँचता था । वास्तव मे ग्रामीण कृषि अधिशेष उत्पादन को दो प्रकार से प्रयोग करते थे।

                                             कृषि अधिशेष
* भविष्य की खाद्य अवश्यकताओं के लिए संग्रहण
* दैनिक अवश्यकता की कृषि एवं गैर-कृषि वस्तुओं के विनिमय हेतु खर्च करने में--नगर मे स्वयं जाकर वस्तु विनिमय तथा फेरि वालों से गाँव मे ही वस्तु विनिमय में खर्च।
1- भविष्य की खाद्य अवश्यकताओं के लिए संग्रहण:- हड़प्पा सभ्यता के
अधिकांश स्थलों से कोष्ठागार मिले हैं। नगरों मे हड़प्पा एवं मोहनजोदडों की भांति कुछ बड़े अन्नागार प्राप्त हुए हैं। ग्रामीण स्थलों से घरों के अंदर माठ,कुठले एवं भूमिगत कोठियों के पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। अभी भी देश के सुदूर  ग्रामीण क्षेत्रों मे लोग खाध्यान्न भंडारण के लिए इनका प्रयोग करते हैं। ग्रामीण हड़प्पावासी अपनी खाध्यान्न संबंधी भविष्य की जरूरतों के लिए अधिशेष उत्पादन का कुछ भाग संग्रहीत करके रखते थे ताकि वे आगामी एफ़एसएल तक अपनी भोजन संबंधी जरूरतें पूरी कर सकें। अभी तक किसी हड़प्पाई स्थल से धातु निर्मित हल का फाल प्राप्त होने के समाचार नही मिले हैं।  इससे यह सामान्य निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हड़प्पावासी लकड़ी के बने हल का प्रयोग करते थे।चोलिस्तान के कई स्थलों तथा बानावाली (हरियाणा) से मिट्टी के बने हल के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं ।  अनेक मुहरों पर पर किया गया रेखांकन  तथा मृणमूर्तियाँ संकेत करती हैं कि हड़प्पावासी वृषभ(बैल) से परिचित थे तथा हल जोतने मे बैलों का प्रयोग करते थे। आरंभिक हड़प्पाई स्तर से संबन्धित कालीबंगा से हल से जुते हुए  खेत का साक्ष्य भी हल द्वारा जुताईं का प्रमाण है। पुरातात्विक साक्ष्य एक साथ दो फसल उगाने का इशारा करते हैं लेकिन यह संदिग्ध है और इसे साक्ष्यों से आधार पर प्रमाणित करना कठिन है।
 लकड़ी का हल गहरी जुटाई करने मे सक्षम नही  था। अतः यह मानना तर्क संगत नही होगा कि हड़प्पाई भारी मात्रा मे अधिशेष अन्न उत्पादन मे सफल रहे हों। कम से कम यह अधिशेष इतना तो नहीं था कि इसके आधार पर एक विशाल  एवं सुस्थापित स्थायी राजसत्ता अस्तित्व मे आ सके । किसी स्थायी या अस्थाई सेना के अस्तित्व के साक्ष्यों का अभाव भी इस बात को प्रमाणित करता है कि कृषि अधिशेष बहुत ज्यादा नही था। राज्य इतना सक्षम अभी तक नही हुआ था कि वह वेतन के रूप मे अनाज देकर सेना का रख रखाव कर सकें । सेना के साथ ही राजसत्ता के अन्य तत्वों को भी भुगतान करना पड़ता है, जो संभव प्रतीत नही होता है। अतः यह माना जा सकता है कि हड़प्पा मे राज्य-तत्व सीमित था। उसका विस्तार एवं प्रभुसत्ता अत्यंत सीमित था। नगरों के बाहर ग्रामीण क्षेत्र किसी भी राज्य कि संप्रभुता कि सीमा मे नहीं थे। नगरों के शासक सिर्फ नगर प्रमुख थे।नगरीय सीमा ही उनके आदेशों कि भी सीमा थी,इनहि नगरों के वे संप्रभु शासक थे। ग्राम उनकी सत्ता से बाहर थे, गरमीन जीवन राजकीय आदेशों से अछूता रहा होगा। 
दैनिक आवश्यकता कि वस्तुओं के विनिमय के लिए अधिशेष का प्रयोग;-
कृषि अधिशेष के एक भाग का प्रयोग हड़प्पावासी अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करते थे। उन्हे भोजन पकाने के लिए विभिन्न प्रकार के मृदभांड जैसे हांडी,मिट्टी की थाली या प्लेट,अन्य संग्रहण पात्रों-माठ, बड़े जार, मृणमूर्तियों, बच्चों के लिए खिलौनों एवं अन्य वस्तुओं की जरूरत पड़ती थी।अपनी इन आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए ग्रामीण समुदाय कृषि अधिशेष के साथ विनिमय करता था। यह विनिमय वह दो प्रकार से करता था:-:-
1- नगरों मे जाकर स्वयं विनिमय
2- गाँव मे आने वाले फेरीवालों से वस्तु विनिमय
इस प्रकार ग्रामों से कृषि अधिशेष शहरों मे जाने की  प्रक्रिया द्विमार्गी थी। वर्ष के अंत तक अधिशेष का अधिकांश भाग नगरों मे पहुँच जाता था। इसी अधिशेष के बल पर अनेक हड़प्पाई नगर फले-फूले और उनकी "नगर पालिकाएं" विकसित हुई।
नगरों द्वारा ग्रामीणों से अधिशेष प्राप्ति की यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसके लिए किसी हथियार या आक्रमण की जरूरत नही थी। इतना ही नहीं ग्रामीण अधिशेष के जिस भाग को अपनी भविष्य की खाद्यान्न आवश्यकताओं के लिए संग्रहीत करके रखते थे, वह भी कई बार मजबूरी मे विनिमय हेतु खर्च करना पड़ जाता था और बाकी के दिन कंद-मूल पर अथवा शिकार करके जीवन निर्वाह करना पड़ता होगा। इसके अतिरिक्त हड़प्पा मे मिले श्रमिक आवास के पुरातात्विक साक्ष्य इस बात का भी संकेत करते है कि अधिशेष कृषि  उत्पादन के अगली फसल से पहले समाप्त हो जाने पर ग्रामीण लोग समीपी नगरों मे मजदूरी भी करते होंगे। नगरों मे श्रम करने वाले अधिकांश श्रमिक ग्रामीण जन ही रहे होंगे। मौसम कि मार एवं समय से पहले अधिशेष खाद्यान्न कि समाप्ती ऐसे कारक थे जिनके कारण ग्रामीणों को जीवन निर्वाह के लिए मजदूरी का सहारा लेना पड़ता होगा। मजदूर सामनी बस्ती से बाहर रहते थे उनका जीवन काफी कठिन एवं श्रमसाध्य था। 

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