शुक्रवार, 29 मई 2015

मेरे बाबा जी.

मेरे बाबा फूल सिंह दिलावरे बेहद सहज,सरल,मेहनती और ईमानदार व्यक्तित्व के धनी थे. अपने पिता श्री मामराज सिंह के बड़े पुत्र थे मेरे बाबा जी। इनके छोटे भाई श्री मंगल सिंह दिलावरे थे। मैंने स्वयं मेहनत करके सफल होने का गुरु मन्त्र अपने बाबा जी से ही सीखा.जब से मैंने होश संभाला था अपने आस-पास बाबा जी का कठोर अनुशासन पाया। बाबा जी सिर्फ कक्षा 4 तक ही पढ़ पाए थे। बाबा जी के पिता यानी मेरे परदादा श्री मामराज सिंह की युवावस्था में ही आकस्मिक मृत्यु हो गई थी। घर में बड़े पुत्र होने के नाते परिवार का भार बाबा जी के कंधो पर आ गया था इसीलिए उन्होंने पढाई भी बीच में ही छोडनी पढ़ी । अपने छोटे भाई को उन्होंने 12 वीं पास कराई।
        बाबा जी श्री मदभगवद गीता के नियमित पाठक और हनुमान के परमभक्त थे। अपने जीवनकाल में मैंने ऐसा कोई अवसर नहीं देखा जब बाबा जी के पास "गीता" को न पाया हो !
    प्रारंभिक शिक्षा के दौरान मै अक्सर स्कूल के बाद खेत में चला जाता था । अक्सर पिताजी और बाबा जी का दोपहर का खाना लेकर। मेरी उम्र के ही मेरे परिवार के रविन्द्र (बीटू) , सुरेन्द्र, सतीश आदि कई मित्रों का प्रिय खेल था "कुआ डंडा".हम दोपहर में बाग में जाकर पेड़ पर चढ़कर यह खेल खेलते थे लेकिन बाबा जी मौका देखते ही दोपहर में मुझे पशु चराने के लिए उनके पीछे लगा देते थे और स्वयं आसपास किसी "खाल" (खेत सिचाई हेतु पानी की नाली) की खुदाई करके उसे साफ़ करने लग जाते थे। इसके पीछे शायद उनका मकसद रहता हो कि काम करते समय उन्हें बोरियत न हो और मै भी भैंस चराने में लगा रहूँ । "कुआ डंडा" खेल में पेड़ से गिरकर हाथ-पैर टूटने का जोखिम हमेशा बना रहता था। इस जोखिम को बाबा जी अच्छी प्रकार जानते थे इसलिए वे मुझे भैंस चराने के काम में लगा देते थे। भैंस चराने का काम काफी बोरियत भरा काम था। अक्सर मै झोटे या भैंस की कमर पर चढ़कर बैठ जाता था, यह यमराज मुद्रा होती थी। मेरी उम्र के ज्यादातर साथियों ने यमराज मुद्रा का खूब आनंद लिया हुआ है।
       एक बार जब मै कक्षा 3-4 का विद्यार्थी था, मै अपने बाग में भैंस चरा रहा था। थोड़ी ही देर में मैंने देखा कि एक करीब 4-5 फुट लम्बा सांप मेरी और भैंसों की और बढ़ रहा है। मैंने पलभर में निष्कर्ष निकाल लिया कि यह सांप या तो मुझे काटेगा या मेरे पशुओं को! मेरे हाथ में एक बेहद पतली "कामची" (डंडी) थी। मैंने एक क्षण में फैसला कर लिया कि आज या तो यह सांप नहीं रहेगा या मै ! मैंने उस कामची से उस सांप पर जोर लगाकर प्रहार करना शुरू कर दिया। मै सांप पर वार करता गया और सहायता के लिए अपने बड़े भाई संजय सिंह (पटवारी) को जोर से आवाज देने लगा " ओ ! संजय भाई सांप, ओ ! संजय भाई सांप ! " जब तक संजय भाई लगभग 300 मीटर की दूरी चलकर मेरे पास सहायता के लिए आये, सांप अपनी अंतिम साँसे गिन रहा था। इस घटना की चर्चा पुरे मोहल्ले में हो गई। शाम को बाबाजी और पिताजी ने जब इस घटना कु चर्चा मेरी दादी "बोहती" के सामने की तो उन्होंने मेंरा नामकरण " दिलदार " कर दिया। वह जब तक जीवित रही मुझे इसी नाम से बुलाती रही।
   मेरे बाबाजी ( दादाजी) हम दोनों भाइयो से बेहद प्यार करते थे। उन्हें प्रकृति से बेहद प्यार था । इसका सबसे बड़ा प्रमाण था हमारे खेत में नर्सरी होना। हमारी नर्सरी दूर दूर तक प्रसिद्द थी। बाबाजी हमेशा नर्सरी में कुछ न कुछ काम करते रहते थे। हमारे लाख समझाने पर भी वह कभी गाँव में रात में नही रुके। हमेशा रात्रि विश्राम खेत में ही करते थे ।
बाबाजी मोच,हड्डी खिसकाना या उतरना के इलाज के लिए दूर-दूर तक मसहूर थे। पंजाब, हरियाणा,आज का उत्तराखंड और दिल्ली तक के लोग उनसे इलाज करवाने के लिए आते थे.
जिस मरीज का इलाज बड़े बड़े डॉक्टर नहीं कर पाए उनको बाबा जी ने दुरुस्त किया। हाथ,पैर की हड्डी का उतरना,पैर में मोच आ जाना,कुल्हे की हड्डी का खिसक जाना, इन सभी के निष्णात चिकित्सक,मेरे बाबा जी ने अपनी सेवाएं बिना किसी मूल्य के लोगों को उपलब्ध कराई। कई बार लोग जब असाध्य पीड़ा से निज़ात पा जाते थे तो खुश होकर बाबा जी को धन भेंट करने की इच्छा जाहिर करते थे लेकिन बाबा जी बड़ी विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर यह कहकर मना कर देते थे कि जिस दिन मै अपनी सेवा की कीमत ले लूँगा उसी दिन मेरी यह विद्या बेअसर हो जाएगी।
         मुझे हल्का सा एवं धुंधला सा याद है कि हमारे खेत में बाबा जी ने केन क्रेशर लगाया था, बाबा जी बताते थे कि गुड-शक्कर एवं खांड बेचने के लिए वह शामली बाजार जाते थे। एक बार गुड से भरी हुई बुग्गी पलट गई तो उसमे बैठा हुआ हमारा नौकर और बाबा जी दोनों बुग्गी के नीचे दब गए थे। आस-पास के लोगों ने बुग्गी सीधी करके दोनों को बाहर निकाला। तब तक नौकर की मौत हो चुकी थी और पहिये के नीचे बाबा जी की गर्दन दबने के बावजूद बाबा जी जीवित बच गए। बाबा जी की गर्दन टेडी हो गई थी, जिसका उन्होंने स्वयं इलाज किया और गर्दन कुछ दिनों में खुद ही सीधी कर ली। बाद के दिनों तक भी खाना खाते, हुक्का पीते समय उनकी गर्दन हिलती रहती थी। बाबा जी की एक खूबी यह थी कि उन्होंने कभी न तो दिन में हुक्का नही पिया और न ही गाँव में किसी के घेर या बैठक पर जाकर ही हुक्का गुडगुडाया। रात को खुद हुक्का ताजा करके वह देर रात तक हुक्का पीते थे। कभी रात्रि में उन्होंने भोजन भी नही किया, रात को वह दूध जरुर पीते थे.