शनिवार, 30 सितंबर 2017

आदिमानव: अफ्रीका से भारत एवं एशिया में प्रसार

अभी तक की जानकारी के अनुसार संपूर्ण ब्रह्मांड में हमारी पृथ्वी एक अद्वितीय ग्रह है। अद्वितीय, क्योंकि सिर्फ इसी ग्रह पर मनुष्य का आवास है। यह लगभग 4.8 अरब वर्ष पुरानी है। पृथ्वी पर प्रथम जीव की उत्पत्ति आज से लगभग 35 अरब वर्ष पहले हुई थी। पृथ्वी की उत्पत्ति के संदर्भ में कई परिकल्पनाएं दी गई। इनमें बिग बैंग संकल्पना तथा जेम्स जींस की द्वितारक परिकल्पनाएं महत्वपूर्ण है। जेम्स जींस की संकल्पना के अनुसार सूर्य के साथ ही प्रारंभ में एक साथी तारा भी था, जो एक पृथक कक्षा में सूर्य की ओर बढ़ रहा था जिसके गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से सूर्य में सिगारनुमा एक ज्वार उभरा। जब यह तारा सूर्य के अत्यंत समीप से गुजरा तो सूर्य पर लगने वाला इसका गुरुत्वाकर्षण बल इतना अधिक था कि सूर्य में उभरा ज्वार उससे अलग हो गया। यह ज्वार, सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव में उसके चारों ओर घूमने लगा तथा कालांतर में संकुचन एवं शीतलन के कारण यह सिगारनुमा ज्वार लगभग 9 भागों में टूट गया। इस प्रकार पृथ्वी सहित नौ ग्रहों का निर्माण हुआ। यद्यपि इस संकल्पना पर कई प्रश्न चिन्ह है लेकिन उनसे हमारा यहां कोई सरोकार नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि प्रारंभ में पृथ्वी आग का एक विशाल गोला थी जिसे ठंडा होने में लाखों वर्ष लग गए। पृथ्वी के शीतल होने, महाद्वीपों तथा महासागरों की उत्पत्ति होने तथा इसपर प्रथम जीव की उत्पत्ति होने में अतिरिक्त लाखों वर्ष और लग गए। भूवैज्ञानिक पृथ्वी पर जीवन के विकास के इतिहास को चार अवस्थाओं में बांटते हैं:
* प्राथमिक यानी पेलियोजोइक
* द्वितीयक अर्थात मेसोजोइक
* तृतीय एवं चतुर्थ
इनमें से तृतीयक तथा चतुर्थक, नूतनजीव अवस्था (सिनोजोइक) का निर्माण करते हैं। यह लगभग 8 करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ।
सिनोजोइक अर्थात नूतन जीव महाकल्प 7 युगों में विभाजित किया जाता है। जिनमें से बाद के दो अत्यंतनूतन(प्लीस्टोसीन) तथा नूतनतम (होलोसीन) मानव विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अत्यंत नूतन लगभग 30 लाख वर्ष पूर्व तथा नूतनतम(होलोसीन) (आधुनिक युग जिसमें हम रहते हैं) आज से लगभग 10,000 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ माना जाता है।
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति करोड़ों वर्षों तक पौधों और पशुओं तक सीमित रही। पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति प्लीस्टोसीन  काल में हुई। लगभग 3.5 से 2 करोड़ वर्ष पूर्व छोटे कद का एक कपि समूह उष्ण कटिबंध के घने जंगलों से बाहर निकला। पहले यह वृक्षों पर ही रहता था। संभवत कपि समूह के जंगल से बाहर निकलने के पीछे जंगल में उनकी जनसंख्या वृद्धि तथा उनके मध्य आपसी संघर्ष एक कारण रहा हो। जलवायु परिवर्तन के कारण जंगलों का क्षेत्रफल भी कम हो रहा था। अतः जलवायु परिवर्तन भी कपि समूह के जंगल से निष्क्रमण का एक उचित कारण हो सकता है।
इस निष्क्रमण के पश्चात क्योंकि यह कपि समूह खुले जंगल में रहने लगा। अतः यह एक स्वभावगत बदलाव प्रक्रिया से गुजरा। अब उसने वृक्षों की बजाय नदियों, पोखरों के किनारे तथा गुफा एवं कंदराओं में रहने को वरीयता दी। नए आवास की परिस्थितियों ने ऐतिहासिक बदलाव को जन्म दिया। यह बदलाव था:-
*  हाथों की चालन क्रिया से मुक्ति
* पैरों पर खड़े हो कर, झुक कर चलना
* हाथों की मुक्ति के कारण मस्तिष्क को हाथ की सहायता प्राप्त हुई, जिसने तकनीकी विकास का मार्ग प्रशस्त किया। अब वह हाथों से तकनीकी क्रिया जैसे उपकरण प्रयोग, फल तोड़ना, भोजन करना आदि कार्य करने लगा। यह एक ऐसा परिवर्तन था जिसने क्रमशः आधुनिक विकसित सभ्यता की नींव रख दी। जंगल से बाहर निकलकर मैदानों में घूमने वाला समूह आस्ट्रेलोपिथेकस कहलाया, जो पूर्व-अत्यंतनूतन युग में अस्तित्व में आया था। आस्ट्रेलोपिथेकस का शाब्दिक अर्थ है दक्षिण वानर। इसका उद्भव मानव इतिहास की अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। इसमें मनुष्य एवं वानर दोनों के लक्षण उपस्थित थे। इसके मस्तिष्क का औसत आकार 450 घन सेंटीमीटर था तथा लंबाई 40 से 50 इंच तक थी। यह मुड़ी हुई पीठ के साथ सीधा चलता था। इसकी खोपड़ी बहुत कुछ मानव समान थी परंतु चेहरा थूथनदार था। इसका उद्भव लगभग 5500000 वर्ष पूर्व से लेकर 1500000 वर्ष पूर्व हुआ था। यह दो पैरों से चलने वाला तथा उभरे पेट वाला था। यह सबसे अंतिम होमिनिड अर्थात पूर्व मानव था। 20 से 15 लाख वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका में होमोहैबिलस अर्थात हाथ वाला मानव (कारीगर मानव) अस्तित्व में आया।
इसे प्रथम मानव की कहते हैं।सर्वप्रथम इसी ने पत्थरों को टुकड़ों में तोड़ कर, टकराकर उनका औजार के रूप में प्रयोग किया। यही प्रथम वास्तविक मानव था इसकी मस्तिष्क क्षमता 500 से 700 घन सेंटीमीटर थी।
पिथेकोन्थरेपस अर्थात होमो इरेक्टस का अर्थ है सीधा चलने वाला कपि मानव। उनकी दृष्टि क्षमता अत्यंत तीव्र होती थी। मस्तिष्क क्षमता 770 घन सेंटीमीटर से 1300 घन सेंटीमीटर थी। यह सीधा खड़ा हो कर चलता था। इसने अत्यंत लंबी दूरी की यात्राएं की। यह अफ्रिका के उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों से लेकर चीन की समशीतोष्ण क्षेत्रों तक पाया जाता था। यह प्रजाति 1500000 वर्ष पूर्व से लेकर 75000 वर्ष के बीच अस्तित्व मे थी। पत्थर के हस्तकुठार
(हैंडएक्स) के निर्माण तथा अग्नि के आविष्कार का श्रेय होमो इरेक्टस को ही है। मानव पूर्वजों में निएंडरथल प्रथम प्राणी था जिसने हिमाच्छादित क्षेत्रों पर भी विजय पाई और वह समशीतोष्ण क्षेत्रों में दूर-दूर तक पहुंच गया। इसकी मस्तिष्क क्षमता आधुनिक मानव के लगभग समान थी। यह गर्दन झुका कर सीधा चलता था। आधुनिक प्रज्ञ मानव का विकास होमो सेपियंस से हुआ। जिसकी जर्मनी में प्राप्त निअंडरथल से पर्याप्त समानताएं हैं। इसका काल 230000 से 30000 वर्ष पूर्व निर्धारित किया जाता है। आंतरिक विसमांगता के आधार पर इस काल में तीन बड़ी बड़ी मानव प्रजातियों का पूर्व संकेत प्राप्त होता है। यह है काकेशशि, मंगोलॉयड एवं नीग्रोयड।



विश्वभर में प्राचीन काल के पत्थर के औजारों में व्यापक समानताओं के अध्ययन के आधार पर कुछ इतिहासकारों का मत है कि होमोइरेक्टस का मूल स्थान अफ्रीका ही था। वह अपने मूल स्थान से निकलकर विश्व के अन्य भागों में फैल गया। बाद में वहां जाकर वह विभिन्न स्थानीय प्रजातियों के रूप में विकसित हुआ। जैसे जावा मानव, पिथेकोन्थ्रेपस,पीकिंग मानव, यूरोप का निएंडरथल आदि। लेकिन कुछ इतिहासकारों का मत है कि अफ्रिका से मानव के फैलाव और विसरण का स्वभाव एवं कारण स्पष्ट नहीं है। प्रज्ञ-मानव इतना अधिक संपन्न होता है कि वह समान पारिस्थितिकीय दशाओं में समान संस्कृति (औजार एवं हथियार) विकसित कर सकता है। इस हेतु किसी बाहरी प्रभाव की आवश्यकता नहीं होती है। यह विषय अभी वाद-विवाद का विषय बना हुआ है। दिसंबर 2009 में हुआ एक अध्ययन दर्शाता है कि चीन, जापान एवं सुदूर पूर्व एशियाई देशों की आबादी के पूर्वज भारत से गए थे। भारत सहित 10 देशों चीन, जापान, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, साउथ कोरिया, ताइवान एवं थाईलैंड के लगभग 90 वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन किया। इसके अनुसार जापानी चीनी एवं बाकी सभी पूर्वी एशियाई देशों के पूर्वज भारतीय थे। इन सभी की उत्पत्ति का मूल एक है। अतः स्पष्ट है कि भारत एशिया की जेनेटिक विविधता के छोटे रूप का प्रतिनिधित्व करता है। इस अध्ययन के अनुसार भारत से लोग दक्षिण-पूर्व एशिया और पूर्वी एशिया गए। लगभग 100000 वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका से सिर्फ एक समूह भारत आया। उसने भारत में सबसे पहले भू भाग पर कदम रखा, लेकिन तटीय क्षेत्रों के करीब। यह लोग जल्दी ही दक्षिण भारत में फैल गए  फिर वें दक्षिण पूर्व और पूर्वी एशियाई क्षेत्र में पहुंच गए। इन भारतीयों और उनके जेनेटिक बदलाव के विविध रूप धीरे-धीरे एशिया के दूसरे हिस्सों में पसरते चले गए। अर्थात यह कहा जा सकता है कि भारतीय ही एशियाई लोगों के पुरखे हैं।

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

क्या मध्यपाषाण काल ही वैदिक युग था?

(प्रकाशित)
भारत में नवपाषाण काल तथा पुरापाषाण काल के बीच की अवधि के लिए मध्यपाषाण काल शब्द का प्रयोग किया जाता है, वास्तव में यह काल इन दोनों के बीच का संक्रमण काल था इसमें कुछ विशेषताएं परिमार्जित अथवा यथावत रूप में पुरापाषाण काल की भी विद्यमान रही तो कुछ ऐसी विशेषताएं भी प्रारंभिक रूप में विद्यमान रही जो नवपाषाण काल के आगमन का आभास देती है। मध्यपाषाण कालीन मानव जो अभी तक आखेटक एवं खाद्य संग्राहक था,ने कृषि एवं पशुपालन की ओर अपना प्रथम कदम बढ़ाया था ।मध्यपाषाण कालीन मानव का भारत में सर्वप्रथम प्रमाण 1867-68 में ए.सी.एल कार्लाइल द्वारा खोजा गया था ।उन्हें मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) की कैमूर पर्वत श्रंखला की गुफाओं में बड़ी मात्रा में लघु पाषाण उपकरण(मिक्रोलिथस) प्राप्त हुए थे ।भारत में मध्यपाषाण कालीन अध्ययन को गति प्रदान करने का श्रेय डॉ. एच. डी.सांकलिया को जाता है। सांकलिया ने गुजरात के अनेक स्थानों का उत्खनन कराया, जिसमें लंघनाज प्रमुख है। मध्यपाषाण काल को पुरापाषाण से पृथक करके अध्ययन करना होगा। क्योंकि इस काल में औजार निर्माण प्रद्योगिकी में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए, जिसने मध्यपाषाणकालीन मानव की जीवन शैली, जीवनचर्या एवं उसके महत्वपूर्ण रहन-सहन को बदल कर रख दिया। हालांकि पुरापाषाण काल की कुछ परंपराएं भी जारी रही, मध्यपाषाण कालीन उपकरण पुरापाषाण काल की अपेक्षा एक विस्तृत विभाग में मिले हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मध्य पाषाण कालीन मानव, एक विस्तृत भूभाग में रहता था। मध्य पाषाण काल 1200 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व तक माना जाता है। उस समय से ही आद्ययुग (होलोसीन ऐज) का प्रारंभ माना जाता है। इस समय जलवायु में पुनः बड़े परिवर्तन हुए। तापमान में वृद्धि हुई। तापमान में वृद्धि के फलस्वरुप पृथ्वी के बड़े भाग पर जमीं बर्फ तथा ग्लेशियर पिघलने लगे फलस्वरूप अनेक नदियों का विकास हुआ। जिनमें प्रचुर मात्रा में मछलियों की वृद्धि हुई।
फलस्वरूप आदिमानव हेतु भोजन का अपेक्षाकृत आसान एवं सुरक्षित विकल्प उपलब्ध हुआ। जमीन के हिम मुक्त हो जाने से तीव्र गति से वनस्पतियों की भी वृद्धि हुई। बड़े विशालकाय जीव लुप्तप्राय हो गए। उनके स्थान पर छोटे एवं तेज तर्रार जीव जैसे हिरण, भेड़-बकरी तथा गाय-बैल आदि तेजी से बढ़े। इस प्रकार आदिमानव के समक्ष अब नए संसाधन उपलब्ध थे ।नए संसाधनों एवं जीविका के अनेक विकल्पों ने तकनीकी में सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उपलब्ध अवसरों का अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए मध्यपाषाण कालीन मानव ने उपकरण तकनीकी में पर्याप्त परिवर्तन किए। अब उसे छोटे एवं तीव्र उपकरणों की आवश्यकता थी ताकि उनकी सहायता से सुदूर क्षेत्र तक तथा तीव्रता से शिकार किया जा सके। अतः उसने लघुपाषाण उपकरणों का विकास किया। यह उपकरण अत्यंत लघु आकार के थे। वह लगभग आधे इंच से लेकर पौन इंच के होते थे। इन उपकरणों में पुरापाषाण कालीन उपकरणों के लघुरूप भी शामिल थे, जैसे बरछी,तीर, आरी अथवा दरांती,ब्लेड,छिद्रक, स्क्रेपर,ब्यूरिन, बेधक एवं चांद्रिक आदि। कुछ स्थानों से अस्थि निर्मित उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। कुछ नए उपकरण जैसे लुनेट,ट्रेपीज़, त्रिभुज तथा धनुष बाण भी प्राप्त हुए हैं। यह लघु उपकरण संयुक्त उपकरणों की भांति प्रयुक्त किए जाते थे। इन्हें लकड़ी अथवा हड्डी के हत्थे में फिट कर के उपयोग में लाया जाता था।
मध्य पाषाण कालीन पुरास्थल, पुरापाषाण कालीन पुरास्थलों की तुलना में कहीं अधिक प्राप्त होते हैं। इससे अनुमान लगाया जाता है कि मध्यपाषाण काल में जनसंख्या में तीव्र वृध्दि हुई थी। इस काल में मानव ने उन स्थानों पर भी बस्तियां बसाई जहां पुरापाषाण कालीन मानव नहीं पहुंच पाया था। उदाहरणार्थ:- दक्षिण-मध्य उत्तर प्रदेश के गंगा मैदानों में भी मध्य पाषाणकालीन मानव बस्तियां पाई गई हैं। भीमबेटका के सभी शैलाश्रयों से मध्य पाषाणकालीन संस्कृति के प्रमाण मिले हैं जबकि पुरापाषाण कालीन संस्कृतियों के प्रमाण बहुत कम शैलाश्रयों से प्राप्त हुए हैं। यह बात भी मध्य पाषाणकालीन जनसंख्या वृद्धि का ही प्रमाण है।
मध्यपाषाण कालीन समाज
जलवायु परिवर्तन के सकारात्मक प्रभाव होने मध्य पाषाण कालीन समाज को कई प्रकार से प्रभावित किया:
# जीव-जंतु एवं वनस्पतियों की तीव्र  वृद्धि
# अनेक सदा वाही नदियों का विकास  # मत्स्ययन का का प्रचार विकास
# जनसंख्या वृद्धि
# बस्तियों का विस्तार
प्रायद्वीपीय भारत में मध्य पाषाण कालीन प्रस्तर उद्योग का आधार स्फटिक पत्थर है। जलालहल्ली ( बेंगलुरु, कर्नाटक) के आसपास विशिष्ट स्फटिक उद्योग का संचालन किया जाता था।लघु प्रस्तर उपकरणों की सहायता से अब मनुष्य अधिक कुशल हो गया।भोजन की प्रचुरता (पर्याप्त वनस्पति तथा मांस) के कारण जीवन की गुणवत्ता में बदलाव आया। मृत्यु दर पहले की अपेक्षा काफी कम हो गई। स्त्री पुरुष दोनों का स्वास्थ्य अच्छा होने के कारण कुल प्रजनन दर में भी वृद्धि हुई इसके परिणाम स्वरुप भी जनसंख्या बढ़ने लगी।

मध्य पाषाण कालीन मानव के खानाबदोश जीवन में भी पहले की अपेक्षा बदलाव हुआ। भोजन के अन्य विकल्प (वनस्पति एवं मछलियां आदि) उपलब्ध होने के कारण वह अपना खाली समय अन्य गतिविधियों में लगा सकता था- जैसे हाथों से मृदभांडों का निर्माण, चोपानीमांडो, लंघनाज तथा बागोर से हस्तनिर्मित अनगढ़ मृदभांड प्राप्त हुए हैं, चोपानीमांडो के मृदभाडों को रस्सी दबा कर बनाई गई आकृतियों से सजाया गया है।घर के लिए घास-फूंस के छप्परों का निर्माण तथा सबसे महत्वपूर्ण चित्रकारी निर्माण। भारत में प्राप्त अधिकांश शैल चित्र इसी काल से संबंधित हैं। यह शैलचित्रों के रूप में है। जिनमें मध्यपाषाण कालीन मानव की रचनात्मकता का तो पता चलता ही है, साथ ही उनके दैनिक सामाजिक-आर्थिक क्रियाकलापों को भी समझा जा सकता है। भीमबेटका के शैलचित्र विश्व प्रसिद्ध है। चील, काराकोरम,गिलगिट, लेह, बुर्जहोम (सभी कश्मीर में) कोप्पागल्लू तथा संगनकल्लू (कर्नाटक) से भी अनेक शैलचित्र मिले हैं। विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर स्पष्ट है कि अब सिर्फ मांस ही भोजन का प्रमुख स्रोत नहीं था। चक्की, सिलबट्टे, हस्तनिर्मित मृदभांड के पुरातात्विक साक्ष्य तथा पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्यों की उपलब्धि इस बात की पुष्टि करती है।
(जिनकी कालावधि कार्बन डेटिंग के अनुसार 8000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व निर्धारित की गई है, अर्थात नवपाषाण काल तथा ताम्र पाषाण काल की समानांतर भी यह काल विद्यमान था) बागोर (राजस्थान), आदमगढ़ (मध्य प्रदेश) तथा लंघनाज (गुजरात) में गाय-बैल। भेड़-बकरी पालन के प्राचीनतम साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। अवश्य ही मांस के अतिरिक्त अन्य पशु उत्पादों जैसे दूध, गोबर (जलावन हेतु), सींग आदि भी पशुपालन का उद्देश्य रहा होगा। यह पालतू पशु एक प्रकार से अतिरिक्त मांस का भंडार थे। इनका आवश्यकता पड़ने पर भोजन हेतु प्रयोग किया जा सकता था। बागोर से डी एन मिश्रा को पशु वधशाला के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इस काल में संभवतः पति-पत्नी वाले परिवारों की भी आदिम अवस्था में शुरुआत हो चुकी थी। सामान्यतः एक कब्र में एक ही व्यक्ति दफनाया जाता था। लेकिन सराय नाहर राय (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) से एक साथ एक ही कब्र में 4 व्यक्तियों को दफनाने का भी प्रमाण मिला है। इनमें दो पति तथा दो पत्नियां हैं। स्त्री पुरुष के वामांग की ओर है। शवों के साथ दैनिक कार्यों में उपयोग आने वाली वस्तुएं भी हैं जो उनके पुनर्जन्म में विश्वास का द्योतक है। सराय नाहर राय, लंघनाज तथा बागोर से शवाधानों के प्रमाण मिले हैं  यह भारत में शवाधान के सबसे प्राचीन प्रमाण हैं। शवों को घर के अंदर ही दफनाया जाता था। इस काल का मानव कच्ची झोपड़ियों तथा गुफाओं में रहता था। झोपड़ियां घास-फूंस तथा वृक्षों की टहनियों आदि से निर्मित होती थी:-जैसी की ग्रामीण भारत में आज भी देखने को मिल जाती हैं। खंबे गाड़कर झोपड़ियों की दीवार को सहारा दिया जाता था तथा फर्श को पत्थरो की सहायता से पक्का किया जाता था। इस काल का मानव पहले की अपेक्षा अत्यधिक क्रियाशील, विवेकशील तथा रचनात्मक था। उसने अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्ति देने के लिए चित्र बनाएं एवं स्वयं को सुंदर दिखाने के लिए आभूषण बनाए तथा भोजन आदि आवश्यक्ताओं के लिए हस्तनिर्मित मृदभांड बनाएं। शिकार के लिए सुंदर प्रभावी तथा छोटे उपकरण बनाए। कीमती पत्थरों का मितव्यता से प्रयोग किया तथा उनकी बर्बादी को नियंत्रित किया।

मध्यपाषाण कालीन संस्कृति का विस्तार
मध्य पाषाणकालीन लोग देश के कुछ क्षेत्रों जैसे केरल, बंगाल डेल्टा, उत्तर पूर्वी भारत तथा पंजाब के मैदानों को छोड़कर लगभग संपूर्ण भारत में फैले थे। मुख्यतः उत्तरी गुजरात, मारवाड़, मेवाड़ (राजस्था इलाहाबाद-मिर्जापुर में गंगा के कछारी मैदान (दक्षिण-मध्य उत्तर प्रदेश) में अनेक मध्य पाषाणकालीन कालीन स्थल मिले हैं। संगनकल्लू (बेल्लारी,कर्नाटक) तूतीकोरिन (तमिलनाडु) कुचाई (मयूरभंज, उड़ीसा), वीरभानपुर (पश्चिम बंगाल) सराय नाहर राय, महादहा, दमदमा (प्रतापगढ), लेखानिया (मिर्जापुर) मोरहाना पहाड़ (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश) चोपानीमांडव (बेलन घाटी मेजा तहसील इलाहाबाद), आदमगढ़ (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश) भीमबेटका (मध्य प्रदेश), लंघनाज(महेसाणा, गुजरात आवाज मलखान वीरपुर गुजरात), तिलवाड़ा (बाड़मेर जिला) तथा बागौर (भीलवाड़ा राजस्थान, कोठारी नदी पर स्थित भारत का सबसे बड़ा मध्य पाषाण स्थल है, सर्वाधिक अन्वेषण भी यहीं पर किया गया है) पटणे (महाराष्ट्र), बरकच्छा, सिद्ध पुर तथा बाराशिमला (मध्य भारत के पहाड़ी क्षेत्र में), गिध्दलूर,रेणिगुंटा, नागार्जुन कोंडा (आंध्र प्रदेश) आदि प्रमुख मध्य पाषाणकालीन स्थल हैं। तूतीकोरिन में लघुपाषाण उपकरण, लाल रेतीले टीलों (टेरी टीलों का स्थानीय नाम) में दबे पाए गए हैं। इन्हें टीलों के नाम पर टेरी उपकरण कहा जाता है। टेरी उद्योग का प्रमुख कच्चा माल स्फटिक तथा हल्का भूरा श्रृंग प्रस्तर है। कासुशोल, जनमिरे बाभलगो तथा जलगढ़ (सभी कोंकण तट पर), कालीकट गोवा, किब्बनहल्ली तथा गिध्दलूर (पूर्वी घाट), नागार्जुनकोंडा, बेलगाम, बेरापेडी गुफा, संगनकल्लू,जमुनीपुर (फूलपुर तहसील इलाहाबाद), कुढ़ा, बिछिया,भीखपुर,तथा मरुडीह (कोरांव तहसील इलाहाबाद), मोरहानापहाड़ (उत्तर प्रदेश) के शैलाश्रयों में दो तथा चार पहियों वाले रथों को धनुष बाण तथा भाले लिए सैनिक समूह द्वारा घेरे हुए चित्रित किया गया है। यह प्रश्न उठता है कि क्या मध्य पाषाणकालीन लोग ही वैदिक जन थे? इस प्रश्न की पड़ताल आवश्यक है क्योंकि रथ वैदिक जनों (आर्यों) का ही प्रमुख वाहन था। रथ का वैदिक युग में महत्वपूर्ण स्थान था। अंत में हम कह सकते हैं कि मध्य पाषाणकालीन मानव ने पहले की अपेक्षा अंशतः स्थिर जीवन की शुरुआत कर दी थी । दावे के साथ उसके जीवन की स्थिरता के बारे में कहना तो मुश्किल है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि अब कम से कम एक स्थान पर जहां पर्याप्त भोजन, पानी उपलब्ध था उसके ठहरने की अवधि काफी लंबी हो गई थी।कहा जा सकता है कि आदिम रूप में कृषि पशुपालन तथा स्थिर अधिवास की नींव पड़ चुकी थी। मध्य पाषाण काल, पुरापाषाण तथा नवपाषाण काल के बीच संक्रमण काल था, इसी ने नवपाषाण संस्कृति की आधारशिला रखी थी।
मध्यपाषाण कालीन पुरातात्विक साक्ष्य बड़े पैमाने पर रथ, घुड़सवार,एवं यद्ध के दृश्य ऋग्वैदिक जीवन की और संकेत करते हैं।अतः क्या मध्यपाषाण काल ही वैदिक युग था,इस दिशा में अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।

(प्रस्तुत लेख लेखक का निजी शोधपत्र है)

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

इस्लाम का सामाजिक विभाजन

इस्लाम का सामाजिक विभाजन
                      @ सुनील सत्यम
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सीरिया,नाइजीरिया,सोमालिया,इथोपिया,लीबिया,इराक,ईरान,कुवैत,फिलीपीन्स,अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान से लेकर भारत मे कश्मीर तथा अन्य स्थानों पर हुए आतंकी हमलों में दुनिया में अब तक मुस्लिमों के हाथों हो दो लाख से ज्यादा मुस्लिम मारे जा चुके हैं।यह दर्शाता है कि दुनिया के सामने "मुस्लिम ब्रोदरहुड" का आदर्श रखने वाला मुस्लिम समाज आंतरिक रूप से कितना विघटित है।और यह विघटन एक फिरके द्वारा दूसरे मुस्लिम फिरके की जान लेने में तनिक भी संकोच नही करता है वरन इसे जेहाद का अनुपालन मानकर फक्र महसूस करता है।इस्लाम के समाजिक वर्गीकरण के विषय में सामान्य जन को बहुत कम जानकारी है।यहां तक कि इस्लाम को जानने वाले सामान्य लोगों को भी इस वर्गीकरण के विषय मे बहुत कम जानकारी है।
आम मुस्लिम अमन पसन्द है और भाईचारे को पसन्द करता है लेकिन अरबी न जानने वाले मौलाना अक्सर कुरान मजीद की अपने निहित स्वार्थों के दायरे में व्याख्या करते है जिसके कारण इस्लाम की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और अन्य समाज इस्लाम के मानने वालों को सन्देह की नजर से देखने लगता है जिससे भाईचारा प्रभावित होता है लोग नफरत की आग में जलने-जलाने लगते हैं।

चरमपंथ और इस्लाम के जुड़ते रिश्तों से भारत लंबे अरसे से परेशान है।कश्मीर,पश्चिम बंगाल और केरल विशेष रूप से प्रभावित है।कश्मीर में इस्लामी आतंकवादी,इस्लाम के नाम पर,इस्लाम के अनुयायियों के भी वर्षों से खून बहा रहे हैं। दुर्गाष्टमी के दिन भारतीय सेना के जवान मुहम्मद रमजान को उसके घर मे घुसकर मारने वाले चारों व्यक्ति इस्लामी आतंकी ही थे।
इसी आतंकी प्रवृत्ति के खिलाफ इस्लाम की बरेलवी विचारधारा के सूफ़ियों और अन्य प्रतिनिधियों ने एक कांफ्रेंस में आतंकवाद के विरुद्ध एक स्वर में आवाज उठाई थी। इतना ही नहीं बरेलवी मुस्लिम समुदाय ने बढ़ते इस्लामी चरमपंथ के लिए वहाबी विचारधारा को ज़िम्मेदार ठहराया है।
इस प्रकार की चर्चाओं के बीच सभी जानना चाहते हैं कि यह वहाबी विचारधारा आखिर है क्या?
भारत मे अन्य गैर-इस्लामी समाज को जिज्ञासा हैं कि मुस्लिम समाज कितने पंथों में बंटा है और वे किस तरह एक दूसरे से अलग हैं?
इस्लाम के सभी अनुयायी ख़ुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन इस्लामिक क़ानून (फ़िक़ह) और इस्लामिक इतिहास की अपनी-अपनी समझ के आधार पर मुसलमान कई पंथों में बंटे हैं.

बड़े पैमाने पर या संप्रदाय के आधार पर देखा जाए तो मुसलमानों को दो हिस्सों-सुन्नी और शिया में बांटा जा सकता है.
हालांकि शिया और सुन्नी भी कई फ़िरक़ों या पंथों में बंटे हुए हैं.
बात अगर शिया-सुन्नी की करें तो दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि अल्लाह एक है, मोहम्मद साहब उनके दूत हैं और क़ुरान आसमानी किताब यानी अल्लाह की भेजी हुई किताब है.
लेकिन दोनों समुदाय में विश्वासों और पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी के मुद्दे पर गंभीर मतभेद हैं. इन दोनों के इस्लामिक क़ानून भी अलग-अलग हैं.
सुन्नी मुसलमान
सुन्नी या सुन्नत का मतलब उस तौर तरीक़े को अपनाना है जिसका पैग़म्बर मोहम्मद साहब (570-632 ईसवी) ने ख़ुद अनुसरण किया हो और इसी हिसाब से वे सुन्नी कहलाते हैं.
एक अनुमान के मुताबिक़, दुनिया के लगभग 80-85 प्रतिशत मुसलमान सुन्नी हैं जबकि 15 से 20 प्रतिशत के बीच शिया हैं.
सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद के बाद उनके ससुर हज़रत अबु-बकर (632-634 ईसवी) मुसलमानों के नए नेता बने, जिन्हें ख़लीफ़ा कहा गया.
इस तरह से अबु-बकर के बाद हज़रत उमर (634-644 ईसवी), हज़रत उस्मान (644-656 ईसवी) और हज़रत अली (656-661 ईसवी) सुन्नी मुसलमानों के नेता बने गए।
इन चारों को ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन यानी सही दिशा में चलने वाला कहा जाता है. इसके बाद से जो लोग आए, वो राजनीतिक रूप से तो मुसलमानों के नेता कहलाए लेकिन धार्मिक दृष्टि से उनका कुछ विशेष महत्व नही है।
   इस्लामिक क़ानून की व्याख्या की दृष्टि से सुन्नी मुसलमान चार प्रमुख समूहों में विभाजित हैं। इसके अतिरिक्त एक पांचवां समूह भी है जो स्वयं को इन चारों से अलग कहता है.
इन पांचों सुन्नी समुदायों के विश्वास और आस्था में बहुत अंतर नहीं है, लेकिन इनका मानना है कि उनके इमाम या धार्मिक नेता ने इस्लाम की सही व्याख्या की है।
दरअसल सुन्नी इस्लाम में इस्लामी क़ानून के चार प्रमुख मत हैं।
आठवीं और नवीं सदी में लगभग 150 साल के अंदर चार प्रमुख धार्मिक नेता पैदा हुए. उन्होंने इस्लामिक क़ानून की व्याख्या की और फिर आगे चलकर उनके मानने वाले उस फ़िरक़े के समर्थक बन गए.
ये चार इमाम थे- इमाम अबू हनीफ़ा (699-767 ईसवी), इमाम शाफ़ई (767-820 ईसवी), इमाम हंबल (780-855 ईसवी) और इमाम मालिक (711-795 ईसवी).
हनफ़ी
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इमाम अबू हनीफ़ा के मानने वाले हनफ़ी कहलाते हैं. इस फ़िक़ह या इस्लामिक क़ानून को मानने वाले मुसलमान  एक देवबंदी एवं बरेलवी दो फिरकों में विभाजित हैं।

दरअसल 20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेता मौलाना अशरफ़ अली थानवी (1863-1943) और अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी (1856-1921) ने इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्या की.
अशरफ़ अली थानवी का संबंध दारुल-उलूम देवबंद मदरसा से था, जबकि आला हज़रत अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी का संबंध बरेली से था.
देवबंदी
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मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना क़ासिम ननोतवी ने 1866 में दारुल उलूम देवबंद की स्थापना की थी. देवबंदी विचारधारा के विकास में मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही, मौलाना क़ासिम ननोतवी और मौलाना अशरफ़ अली थानवी की प्रमुख भूमिका रही है.
भारतीय उपमहाद्वीप अर्थात भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों का संबंध इन्हीं दो पंथों से है.

देवबंदी और बरेलवी विचारधारा के मानने वालों का दावा है कि क़ुरान और हदीस ही उनकी शरियत का मूल स्रोत है लेकिन इसका अनुपालन करने के लिए इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है. इसलिए शरीयत के तमाम क़ानून इमाम अबू हनीफ़ा के फ़िक़ह के अनुसार हैं।
बरेलवी
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वहीं बरेलवी विचारधारा के लोग आला हज़रत रज़ा ख़ान बरेलवी के बताए हुए मार्ग का अनुसरण करते हैं। बरेली में आला हज़रत रज़ा ख़ान की मज़ार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वालों का सबसे बड़ा केंद्र है।
दोनों में कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं लेकिन कुछ चीज़ों में मतभेद हैं। जैसे बरेलवी इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद सब कुछ जानते हैं, जो दिखता है वो भी और जो नहीं दिखता है वो भी। वह हर जगह मौजूद हैं और सब कुछ देख रहे हैं।अर्थात बरेलवी मुहम्मद साहब को ही सब कुछ मानते हैं।
वहीं देवबंदी इसमें विश्वास नहीं रखते हैं। देवबंदी अल्लाह के बाद नबी को दूसरे स्थान पर रखते हैं और उन्हें इंसान मानते हैं।
बरेलवी सूफ़ी इस्लाम के अनुयायी हैं और उनके यहां सूफ़ी मज़ारों को काफ़ी महत्व प्राप्त है जबकि देवबंदी मजारों को मान्यता नंगी देते और इनका विरोध करते हैं.
मालिकी
इमाम अबू हनीफ़ा के बाद सुन्नियों के दूसरे इमाम, इमाम मालिक हैं जिनके मानने वाले एशिया में कम हैं. उनकी एक महत्वपूर्ण किताब 'इमाममोत्ता' के नाम से प्रसिद्ध है.
उनके अनुयायी उनके बताए नियमों को ही मानते हैं. ये समुदाय आमतौर पर मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका में पाए जाते हैं.
शाफ़ई
शाफ़ई इमाम मालिक के शिष्य हैं और सुन्नियों के तीसरे प्रमुख इमाम हैं. मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग उनके बताए रास्तों पर अमल करता है, जो ज़्यादातर मध्य पूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में रहता है.
आस्था के मामले में यह दूसरों से बहुत अलग नहीं है लेकिन इस्लामी तौर-तरीक़ों के आधार पर यह हनफ़ी फ़िक़ह से अलग है. उनके अनुयायी भी इस बात में विश्वास रखते हैं कि इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है.
हंबली
सऊदी अरब, क़तर, कुवैत, मध्य पूर्व और कई अफ्रीकी देशों में भी मुसलमान इमाम हंबल के फ़िक़ह का ज़्यादा अनुसरण करते हैं और वे अपने आपको हंबली कहते हैं।
सऊदी अरब की सरकारी शरीयत इमाम हंबल के धार्मिक क़ानूनों पर आधारित है. उनके अनुयायियों का कहना है कि उनका बताया हुआ तरीक़ा हदीसों के अधिक करीब है।
इन चारों इमामों को मानने वाले मुसलमानों का ये मानना है कि शरीयत का पालन करने के लिए अपने अपने इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है।
सल्फ़ी, वहाबी और अहले हदीस
सुन्नियों में एक समूह ऐसा भी है जो किसी एक ख़ास इमाम के अनुसरण की बात नहीं मानता और उसका कहना है कि शरीयत को समझने और उसका सही ढंग से पालन करने के लिए सीधे क़ुरान और हदीस (पैग़म्बर मोहम्मद के कहे हुए शब्द) का अध्ययन करना चाहिए.
इसी समुदाय को सल्फ़ी, अहले-हदीस और वहाबी आदि के नाम से जाना जाता है। यह संप्रदाय चारों इमामों के ज्ञान, उनके शोध अध्ययन और उनके साहित्य की क़द्र करता है।
लेकिन उसका कहना है कि इन इमामों में से किसी एक का अनुसरण अनिवार्य नहीं है। उनकी जो बातें क़ुरान और हदीस के अनुसार हैं उस पर अमल तो सही है लेकिन किसी भी विवादास्पद चीज़ में अंतिम फ़ैसला क़ुरान और हदीस का मानना चाहिए।
सल्फ़ी समूह का कहना है कि वह ऐसे इस्लाम का प्रचार चाहता है जो पैग़म्बर मोहम्मद के समय में था। इस सोच का विस्तार करने का श्रेय इब्ने तैमिया(1263-1328) और मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब(1703-1792) को है और अब्दुल वहाब के नाम पर ही यह समुदाय वहाबी नाम से भी जाना जाता है।
मध्य पूर्व के अधिकांश इस्लामिक विद्वान उनकी विचारधारा से ज़्यादा प्रभावित हैं। इस समूह के बारे में एक बात बड़ी मशहूर है कि यह सांप्रदायिक तौर पर बेहद कट्टरपंथी और धार्मिक मामलों में बहुत कट्टर है. सऊदी अरब के मौजूदा शासक इसी विचारधारा को मानते हैं।
अल-क़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन भी सल्फ़ी विचाराधारा का ही  समर्थक था।
सुन्नी बोहरा
गुजरात, महाराष्ट्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुसलमानों के व्यवसायी समुदाय के एक समूह को बोहरा के नाम से जाना जाता है. बोहरा, शिया और सुन्नी दोनों होते हैं.
सुन्नी बोहरा हनफ़ी इस्लामिक क़ानून पर अमल करते हैं जबकि सांस्कृतिक तौर पर दाऊदी बोहरा यानी शिया समुदाय के क़रीब हैं.
अहमदिया
हनफ़ी इस्लामिक क़ानून का पालन करने वाले मुसलमानों का एक समुदाय अपने आप को अहमदिया कहता है। इस समुदाय की स्थापना भारतीय पंजाब के क़ादियान में मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने की थी। इस पंथ के अनुयायियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ख़ुद नबी का ही एक अवतार थे
उनके मुताबिक़ वे खुद कोई नई शरीयत नहीं लाए बल्कि पैग़म्बर मोहम्मद की शरीयत का ही पालन कर रहे हैं लेकिन वे नबी का दर्जा रखते हैं। मुसलमानों के लगभग सभी संप्रदाय इस बात पर सहमत हैं कि मोहम्मद साहब के बाद अल्लाह की तरफ़ से दुनिया में भेजे गए दूतों का सिलसिला ख़त्म हो गया है।
लेकिन अहमदियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ऐसे धर्म सुधारक थे जो नबी का दर्जा रखते हैं।
बस इसी बात पर मतभेद इतने गंभीर हैं कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानता। यद्यपि भारत, पाकिस्तान और ब्रिटेन में अहमदियों की अच्छी ख़ासी संख्या है।
पाकिस्तान में तो आधिकारिक तौर पर अहमदियों को इस्लाम से ख़ारिज कर दिया गया है।
शिया
शिया मुसलमानों की धार्मिक आस्था और इस्लामिक क़ानून सुन्नियों से काफ़ी अलग हैं।वह पैग़म्बर मोहम्मद के बाद ख़लीफ़ा नहीं बल्कि इमाम नियुक्त किए जाने के समर्थक हैं।
उनका मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके असल उत्तारधिकारी उनके दामाद हज़रत अली थे. उनके अनुसार पैग़म्बर मोहम्मद भी अली को ही अपना वारिस घोषित कर चुके थे लेकिन धोखे से उनकी जगह हज़रत अबू-बकर को नेता चुन लिया गया।
शिया मुसलमान मोहम्मद के बाद बने पहले तीन ख़लीफ़ा को अपना नेता नहीं मानते बल्कि उन्हें ग़ासिब कहते हैं। ग़ासिब अरबी का शब्द है जिसका अर्थ हड़पने वाला होता है।
उनका विश्वास है कि जिस तरह अल्लाह ने मोहम्मद साहब को अपना पैग़म्बर बनाकर भेजा था उसी तरह से उनके दामाद अली को भी अल्लाह ने ही इमाम या नबी नियुक्त किया था और फिर इस तरह से उन्हीं की संतानों से इमाम होते रहे।
आगे चलकर शिया भी कई हिस्सों में बंट गए।
इस्ना अशरी
सुन्नियों की तरह शियाओं में भी कई संप्रदाय हैं लेकिन सबसे बड़ा समूह इस्ना अशरी यानी बारह इमामों को मानने वाला समूह है. दुनिया के लगभग 75 प्रतिशत शिया इसी समूह से संबंध रखते हैं. इस्ना अशरी समुदाय का कलमा सुन्नियों के कलमे से भी अलग है.
उनके पहले इमाम हज़रत अली हैं और अंतिम यानी बारहवें इमाम ज़माना यानी इमाम महदी हैं. वो अल्लाह, क़ुरान और हदीस को मानते हैं, लेकिन केवल उन्हीं हदीसों को सही मानते हैं जो उनके इमामों के माध्यम से आए हैं.
क़ुरान के बाद अली के उपदेश पर आधारित किताब नहजुल बलाग़ा और अलकाफ़ि भी उनकी महत्वपूर्ण धार्मिक पुस्तक हैं. यह संप्रदाय इस्लामिक धार्मिक क़ानून के मुताबिक़ जाफ़रिया में विश्वास रखता है. ईरान, इराक़, भारत और पाकिस्तान सहित दुनिया के अधिकांश देशों में इस्ना अशरी शिया समुदाय का दबदबा है.

ज़ैदिया

शियाओं का दूसरा बड़ा सांप्रदायिक समूह ज़ैदिया है, जो बारह के बजाय केवल पांच इमामों में ही विश्वास रखता है. इसके चार पहले इमाम तो इस्ना अशरी शियों के ही हैं लेकिन पांचवें और अंतिम इमाम हुसैन (हज़रत अली के बेटे) के पोते ज़ैद बिन अली हैं जिसकी वजह से वह ज़ैदिया कहलाते हैं.
उनके इस्लामिक़ क़ानून ज़ैद बिन अली की एक किताब 'मजमऊल फ़िक़ह' से लिए गए हैं. मध्य पूर्व के यमन में रहने वाले हौसी ज़ैदिया समुदाय के मुसलमान हैं.
इस्माइली शिया

शियों का यह समुदाय केवल सात इमामों को मानता है और उनके अंतिम इमाम मोहम्मद बिन इस्माइल हैं और इसी वजह से उन्हें इस्माइली कहा जाता है. इस्ना अशरी शियों से इनका विवाद इस बात पर हुआ कि इमाम जाफ़र सादिक़ के बाद उनके बड़े बेटे इस्माईल बिन जाफ़र इमाम होंगे या फिर दूसरे बेटे.
इस्ना अशरी समूह ने उनके दूसरे बेटे मूसा काज़िम को इमाम माना और यहीं से दो समूह बन गए. इस तरह इस्माइलियों ने अपना सातवां इमाम इस्माइल बिन जाफ़र को माना. उनकी फ़िक़ह और कुछ मान्यताएं भी इस्ना अशरी शियों से कुछ अलग है.
दाऊदी बोहरा
बोहरा का एक समूह, जो दाऊदी बोहरा कहलाता है, इस्माइली शिया फ़िक़ह को मानता है और इसी विश्वास पर क़ायम है. अंतर यह है कि दाऊदी बोहरा 21 इमामों को मानते हैं.

उनके अंतिम इमाम तैयब अबुल क़ासिम थे जिसके बाद आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा है. इन्हें दाई कहा जाता है और इस तुलना से 52वें दाई सैय्यदना बुरहानुद्दीन रब्बानी थे. 2014 में रब्बानी के निधन के बाद से उनके दो बेटों में उत्तराधिकार का झगड़ा हो गया और अब मामला अदालत में है.
बोहरा भारत के पश्चिमी क्षेत्र ख़ासकर गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं जबकि पाकिस्तान और यमन में भी ये मौजूद हैं. यह एक सफल व्यापारी समुदाय है जिसका एक धड़ा सुन्नी भी है.

खोजा
खोजा गुजरात का एक व्यापारी समुदाय है जिसने कुछ सदी पहले इस्लाम स्वीकार किया था. इस समुदाय के लोग अधिकांश शिया है।भारत विभाजन का जनक मुहम्मद अली जिन्नाह एक खोजा शिया मुस्लिम था जिसने सुन्नियों पर राज किया।
भारतीय मुस्लिम समाज को आधुनिक शिक्षा से हटाकर मदरसा शिक्षा की तरफ मोड़ने के लिए जिन्नाह के अपने स्वार्थ थे।जिन्नाह भारतीय मुसलमानों को कट्टर बनाये रखना चाहता था क्योंकि वह खुद शिया था।आम मुस्लिम उसकी असलियत जानकर कहीं उसका नेतृत्व स्वीकार करने से इनकार न कर दे इसलिए वह भारतीय मुसलमानों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से काटकर उंन्हे कट्टर बनाने का हिमायती था।और ऊनी चाल में वह सफल भी हुआ।दुनिया के सबसे बड़े इस्लामी देश इंडोनेशिया में मुस्लिम आज भी भगवान श्रीराम को अपना पूर्वज मानता है लेकिन भारत के मुसलमानों को इस सांस्कृतिक अलगाव के लिए जिन्नाह ने ही पृष्ठभूमि तैयार की थी।
ज़्यादातर खोजा इस्माइली शिया के धार्मिक क़ानून का पालन करते हैं लेकिन एक बड़ी संख्या में खोजा इस्ना अशरी शियों की भी है.
लेकिन कुछ खोजे सुन्नी इस्लाम को भी मानते हैं. इस समुदाय का बड़ा वर्ग गुजरात और महाराष्ट्र में पाया जाता है. पूर्वी अफ्रीकी देशों में भी ये बसे हुए हैं.

शियों का यह संप्रदाय सीरिया और मध्य पूर्व के विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है. इसे अलावी के नाम से भी जाना जाता है. सीरिया में इसे मानने वाले ज़्यादातर शिया हैं और देश के राष्ट्रपति बशर अल असद का संबंध इसी समुदाय से है.
इस समुदाय का मानना है कि अली वास्तव में भगवान के अवतार के रूप में दुनिया में आए थे. उनकी फ़िक़ह इस्ना अशरी में है लेकिन विश्वासों में मतभेद है. नुसैरी पुर्नजन्म में भी विश्वास रखते हैं और कुछ ईसाइयों की रस्में भी उनके धर्म का हिस्सा हैं.
इन सबके अलावा भी इस्लाम में कई छोटे छोटे पंथ पाए जाते हैं.
(लेख में लेखक की निजिराय है,लेख सामान्य जानकारी के लिए है न कि सन्दर्भ हेतु)