बुधवार, 21 सितंबर 2011

अतीत मंथन

मानव जीवन की शुरुआत , स्वयं मानव की जिज्ञासा का एक बड़ा पहलू आज भी बनी हुई है। पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर आधुनिक प्रग्य-मानव के विकास तक की सारी यात्रा दुनिया की समस्त पुस्तकों में उपलब्ध सर्वाधिक रोमांचक वृत्तान्त है। लेमार्क और चार्ल्स डार्विन जैसे विद्वानों ने मानव विकास पर अपना नजरिया प्रस्तुत कर मानव विकास की कहानी में अपने मत जोड़ें हैं।
हर बार हम जब मानव जीवन के इतिहास पर नजर डालते है तो अनेक नए पहलू सामने उभर आते है। मानव विकास की कहानी इतनी रोचक और विस्तृत है कि इसे किसी एक सांचे में फिट करना हमारे अज्ञानी होने का ही प्रमाण होगा। संक्षेप में कहूँ तो यह कहना उचित होगा की मानव विकास यात्रा की कहानी कुछ वैसी ही है जैसी अनंत ब्रह्माण्ड की यात्रा। ब्रह्माण्ड की यात्रा के बारे में कोई जितना बड़ा दावा करे समझो की वह उतना ही खोखला है। क्योंकि ब्रहमांड की विशालता का सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है आकलन नहीं किया जा सकता है।
अंडा पहले आया या मुर्गी वाला वाद-विवाद निठल्ले लोगों का चिंतन मानना चाहिए। जिन्हें गाँव-नगर के सार्वजनिक चौपालों या पार्कों में बैठ कर अपना समय व्यतीत करना होता है। वैसे कोशिका विज्ञानी इस सवाल का जवाब लगभग दे चुके है कि पहले मुर्गी या अंडा नहीं, कोशिका की उत्पत्ति हुई जो जीवन की आधारभूत इकाई है। कोशिका से टिस्शु, टिस्शु से ओरगन ( अंग) और अंगो से अंग तंत्र की उत्पत्ति हुई। अंग तंत्रों का समूहन ही शरीर बनाता है।
मानव की दृष्टि की एक सीमा है। उस सीमा से आगे या पीछे सोचने,समझने ,अद्ययन के लिए विशेष ज्ञान अथवा विधियों की आवश्यकता होती है। अध्ययन की इन विधियों की वैज्ञानिकता भी समकालीन सिद्धांतों की परिधि में ही रहती है। अतः वैज्ञानिक सिद्धांतों में परिवर्तन के साथ ही परिवर्तन से पूर्व हमारे द्वारा स्थापित मान्यता या सिद्धांत भी परिमार्जित करना पड़ता है। अतः वैज्ञानिक विधियों की सहायता लेकर स्थापित की गई अवधारणायें भी इतिहास जैसे सामाजिक विज्ञानं के क्षेत्र में हमेशा सही नहीं रहती है।
उदहारण के लिए कार्बन डेटिंग विधि की सहायता से कुछ इतिहासकारों ने हड़प्पा सभ्यता के काल निर्धारण का प्रयास किया है। परिपक्व हड़प्पा काल को २२५० ईसा पूर्व से १७५० ईसा पूर्व के मध्य निर्धारित कर दिया। "रेडियो-कार्बन काल निर्धारण की विधि की शुरुवात सन १९४९ ई० में अमेरिकी भौतिकशास्त्री डब्ल्यू ,ऍफ़ .लिबी द्वारा शुरू की गई थी। जिस समय लिबी ने कार्बन डेटिंग की शुरुवात की थी उस समय c -14 की अर्द्ध आयु 5568 वर्ष के बराबर मानी जाती थी। जिसके आधार पर ही बाद में कुछ इतिहासकारों ने हड़प्पा सभ्यता का काल निर्धारण कर दिया। " लेकिन जब C -14 की इस अर्द्ध आयु को वृक्षतैथिक (Dendrocronology) की सहायता से जांचा गया तो यह 5730 वर्ष निर्धारित हुई । इस सुधार से मूल C -14 तिथियाँ कुछ सदियाँ पीछे चली गई हैं। उदाहरणस्वरूप C14 से प्राप्त 3000 ई.पू. की अवधि अंशांकन से 3700 ई.पू. हो गई है.( जैन. वी.के.२००८.पृष्ठ : 11)"
उक्त परिवर्तन से परिपक्व हड़प्पा सभ्यता के पूर्वनिर्धारित काल को भी संशोधित करके 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू. करना पड़ा है. " हड़प्पा सभ्यता के काल को अलग अलग स्थानों के लिये 3200 ई.पू. से 2600 ई.पू. (प्रारंभिक हड़प्पा ), 2600 ई.पू. -1900 ई.पू. (परिपक्व हड़प्पा ), 1900 ई.पू. -1300 ई.पू. (उत्तर हड़प्पा ) निर्धारित किया गया है.( सिंह उपिन्दर.२००९.पृष्ठ 138. )"
अतः यह कहना उचित होगा कि अतीत के मंथन के लिए सबसे ज्यादा अगर किसी चीज कि जरूरत है तो वह है एक स्वस्थ एवं विस्तृत दृष्टिकोण । किसी चश्मे के अन्दर से हम इतिहास के साथ न्याय नहीं कर सकते। समस्या तब उत्पन्न होती है जब इतिहास लेखन के पीछे इतिहासकार के छुपे निहितार्थ होते है। जब बने बनाये ढांचे के अनुरूप वह इतिहास लेखन कर रहा होता है तब वास्तव में इतिहासकार इतिहास नहीं वरन आख्यान रचना करता है। जिसके पीछे सिर्फ सस्ता मनोरंजन उपलब्ध करना मकसद होता है। इस प्रकार लिखा गया इतिहास समय विशेष के लिए होता है। अपनी चाल से चलता समय-चक्र समय आने पर इनमे हास्य का पुट डालकर इन्हें हास्यास्पद बना देता है। लम्बे समय तक कट-पेस्ट में माहिर इतिहास लेखकों ने औपनिवेशिक इतिहासकारों के मंतव्यों को समझे बगैर जबरदस्ती भारत पर आर्य आक्रमण के सिद्धांत को पुष्ट किया । अब यह स्थापित हो चुका है कि भारत पर कोई आक्रमण नहीं हुवा था। क्योंकि इस बात के न तो जीववैज्ञानिक और न ही पुरातात्विक साक्ष्य मिले है। हड़प्पा के आर्य आक्रमण द्वारा पतन को लेकर बहुत सी पुस्तकों कि रचना हुई जिनको समय ने फालतू सिद्ध कर दिया है।ऋग्वेद में आर्यों का मूल स्थान सप्त सैंधव प्रदेश वर्णित है जो अफगानिस्तान में काबुल से लेकर पूर्व में सदानीरा(गंडक) के बीच का क्षेत्र था।अर्थात यह वही क्षेत्र है जो हडप्पा सभ्यता का भी क्षेत्र है। वर्ष 1400 ईसा पूर्व एशिया माइनर में बोगोजकोइ से प्राप्त अभिलेख में वैदिक देवताओं का वर्णन मिलता है।इस अभिलेख में इंद्र,मित्र,वरुण एवं दो नासात्यों का उल्लेख है जो वैदिक देवमण्डल में शामिल है।पश्चिम एशिया के इस क्षेत्र बोगोजकोइ में आर्य देवताओं का साक्ष्य मिलना इस बात का साक्ष्य है कि आर्यों का विस्तार सप्त सैंधव(पूर्व) से पश्चिम एशिया (पश्चिम) की और हुआ था।इसके विपरीत औपनिवेशिक इतिहासकारों ने श्वेत-मानव श्रेष्ठता साबित करने के लिए भारत पर पश्चिम से आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत प्रचारित किया जिसका उनके मानसपुत्र भारतीय मूल के औपनिवेशिक इतिहासकारों ने खूब प्रचार किया।
उत्तर पुरापाषाण कालीन चित्रित शैलाश्रयों से भी अनेक रंगीन भित्तिचित्र प्राप्त होते हैं जो ऋग्वैदिक सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की और संकेत करते हैं।औपनिवेशिक एवं साम्यवादी इतिहास लेखकों में यह आम प्रवृत्ति रही है कि ऋग्वैदिक जीवन एवं मूल्यों से साम्यता प्रदर्शित करने वाले पुरातात्विक साक्ष्यों के या तो उन्होंने दबा दिया या फिर उंन्हे अनदेखा कर दिया।उन्होंने यदि इन साक्ष्यों के कहीं उल्लेख किया भी है तो सतही उल्लेख कर दिया कि कोई साहित्यिक साक्ष्य न होने के अभाव में यह कहना मुश्किल है कि ये साक्ष्य किस धर्म एवं समाज से जुड़े हो सकते हैं।इसके विपरीत हड़प्पाई क्षेत्रों में उन्होंने ऐसे मनघड़ंत साक्ष्यों पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है जो यह साबित कर सके कि आर्य एवं हडप्पा न केवल अलग थे वरन उनमे प्रजातीय विभेद भी था।अनेक पुरापाषाण कालीन भित्ति चित्र स्पष्टतः ऋग्वैदिक जीवन की और संकेत करते हैं।भीमबेटका में घोड़े ,रथ एवं शिकार के अनेक दृश्य प्राप्त हुए हैं जो इनके ऋग्वैदिक पक्ष की और स्पष्ट संकेत है।