सोमवार, 8 जून 2015

सुजान सिंह तंवर..

हथछोया, शामली जनपद,उत्तर प्रदेश की कैराना तहसील का एक ऐतिहासिक गाँव है जो ऊन विकास खन्ड के अंतर्गत आता है, इस गाँव में तंवर (तोमर) गौत्र के गुर्जरों की बाहुल्यता है। ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते है कि 1192 ई. के तराइन युद्ध में मुहम्मद गौरी से पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद दिल्ली के फतेहपुर बेरी आदि गांवों से बहुत से तंवर पलायन कर गए। इनमे से सुजान सिंह तंवर ने इस क्षेत्र में सुजान खेडी गाँव की स्थापना की जो राजस्व दस्तावेजों में आजकल हथछोया एवं सांपला तथा मुंडेट खादर के बीच एक गैर-आबाद गाँव के रूप में दर्ज है। बाद में कई कारणों से सुजान खेडी की आबादी हथछोया में प्रवास कर गई।
जारी.......

बुधवार, 3 जून 2015

लेखन की भूख-2


(16 अक्तूबर 2013)

सुशील उपाध्याय जी इस मायने में मेरे और डॉ. अजीत के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुए कि उनसे हमें कुछ समाचार पत्र/पत्रिकाओं के पते और शायद एकाध की प्रति भी प्राप्त हो गए जहाँ हम प्रकाशन के लिए अपनी रचनाएं भेज सकते थे.सुशील जी से मैंने सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह किया था कि पत्र/पत्रिकाओं में रचनाएं कैसे छपती हैं ? एक नवोदित लेखक के लिए यह जानना सबसे महत्वपूर्ण होता है कि उसकी रचनाएं कैसे महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाएं ? जब लेखन की खुमारी का कोई शिकार होता है तो उसका यह भी सपना होता है की उसकी रचनाओं का सम्मानजनक पारिश्रमिक भी उसे मिलने लगे.मेरी ख्वाहिश भी इससे कुछ जुदा नहीं थी. मैंने और डॉ. अजीत ने लेखन के उस प्रारंभिक दौर में लेखन विधियों,तौर तरीकों, और प्रकाशन बिन्दुओं से सम्बंधित बिन्दुओं पर मार्गदर्शक विहीन शौध भी खूब किया.सुशील जी से हमने कभी इस बात पर चर्चा नहीं की कि प्रभावी लेखन कैसे किया जाए, वरन हमारी जिज्ञासा यह होती थी कि कैसे छपा जाये ? वह भी श्रेष्ठ पत्रिकाओं आदि में ! सुशील जी से हमने जो सबसे महत्वपूर्ण बात लेखन के क्षेत्र में सीखी वह यह थी कि किसी पत्र-पत्रिका में कोई रचना प्रकाशनार्थ भेजने के लिए उसके साथ ' मौलिक एवं अप्रकाशित ' होने का प्रमाण-पत्र लगा होना जरुरी होता है.पहले तो हमने सोचा कि यह प्रमाण पत्र कहाँ से हासिल किया जाए लेकिन जब उन्होंने बताया की सादे कागज पर स्वयं ही लिख कर भेजना होता है कि प्रस्तुत रचना मेरी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना है, तो हमें काफी राहत महसूस हुई.
मैंने रचनाएं प्रकाशन हेतु भेजने के लिए शुरुआत सरिता, जाहनवी, अमर उजाला एवं दैनिक जागरण जैसे उच्चकोटि के प्रकाशन समूहों से की.सुशील जी से एक महत्वपूर्ण जानकारी यह भी मिली थी की रचना के साथ वापसी के लिए डाक टिकट लगा लिफाफा भी भेजना होता है..कुछ दिनों बाद ही संपादकों की बेदिली की गाज़ का मै शिकार होने लगा जब 'संपादक के खेद सहित मेरी रचनाएं सादर वापिस ' आने लगी.इस दौरान अजीत ने पत्र-लेखन सीखने पर अपना ध्यान केन्द्रित रखा.पत्र लिखकर भेजने से पहले अजीत मुझे भी दिखाया करते थे ताकि मै अपनी विशेषज्ञता का पुट उसमे डाल सकूँ.रचना मेरी वापस आती थी होसले पस्त अजीत भाई के हो जाते थे.और उनको डगर कठिन दिखाई देने लगती थी.लेखन का भूत हम दोनों पर इसकदर सवार हो चूका था कि संपादक के नाम पत्र, कविताएं, लेख,कहानियां लिखने मात्र से हमारी लेखन क्षुधा समाप्त नहीं होती थी..बल्कि हमने अनेक पत्र-मित्र भी बना लिए थे. प्रतिदिन हम दसियों पत्र अपने मित्रों को लिखकर अपनी क्षुधा का शमन करने का प्रयास करते थे.
मेरी और अजीत की दोस्ती को परवान चढ़ाने में कक्षा 11 के दौरान मुझे हुए टाई फाइड बुखार ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.मै थानाभवन के लाजपत राय कालेज में पढ़ता था.बुखार के कारण लगभग एक महीना मै कालेज नहीं जा पाया, अक्सर अपने घर की दहलीज ( बरामदा ) में चारपाई पर रहता था.अजीत भी प्रतिदिन अपने स्कूल से घर वापस आते ही मेरे पास आ जाते थे.हम घंटों साथ रहते थे.अनेक विषयों पर अपनी समझ के अनुसार चर्चा करते थे.सुशील भाई भी हमारी चर्चा में रहते थे. अक्सर हम उन्हें इस बात के लिए दोष दे देते थे कि वह अपनी ज्ञान-गंगा की धारा जानबूझकर हमारी और नहीं करना चाहते हैं.यद्यपि हमने कभी उनसे यह नहीं कहा की वह हमें कुछ सीखाएं. हमने यह धारणा बना ली थी कि गाँव का होने के नाते उनको यह सोचना चाहिए कि हम भी उनकी ही तरह आगे बढ़ सके.लेकिन वह ऐसा नहीं सोचते है!
मैंने और अजीत ने अपनी समस्या का खुद समाधान करने और आगे बढ़ने पर शौध जारी रखा.
( जारी.. )