सुन्नी मुसलमान
सुन्नी या सुन्नत का अर्थ है पैग़म्बर मोहम्मद साहब (570-632 ईसवी) द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करना।
दुनिया के लगभग 80-85 प्रतिशत मुसलमान सुन्नी हैं जबकि 15 से 20 प्रतिशत के बीच शिया हैं।
सुन्नी मुसलमानों का मत है कि पैग़म्बर मोहम्मद ने अपने ससुर हज़रत अबु-बकर (632-634 ईसवी) को अपना उत्तराधिकारी बनाया था जिन्हें ख़लीफ़ा कहा गया है। अबु-बकर के बाद हज़रत उमर (634-644 ईसवी), हज़रत उस्मान (644-656 ईसवी) और हज़रत अली (656-661 ईसवी) को सुन्नी मुसलमानों ने अपना नेता माना।
यह चार खलीफा ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन अर्थातन सही मार्ग का अनुसरण करने वाले माने गए। इनके बाद के खलीफा केवल राजनीतिक दृष्टि से ही महत्व रखते है उनका धार्मिक महत्व समाप्त हो गया।
इस्लामिक क़ानून (शरीयत) की व्याख्या करने के आधार पर सुन्नी मुसलमान पांच पंथों में बंटे है जिनमे आपसी विभेद है।
इन पांचों सुन्नी समुदायों में हर एक का दावा है कि उनके इमाम या धार्मिक नेता ने ही इस्लाम की सही व्याख्या की है।
दरअसल सुन्नी इस्लाम में इस्लामी क़ानून के चार प्रमुख मत हैं।
आठवीं और नवीं सदी में लगभग 150 साल के अंदर चार प्रमुख धार्मिक नेता पैदा हुए. उन्होंने इस्लामिक क़ानून की व्याख्या की और फिर आगे चलकर उनके मानने वाले उस फ़िरक़े के समर्थक बन गए.
ये चार इमाम थे- इमाम अबू हनीफ़ा (699-767 ईसवी), इमाम शाफ़ई (767-820 ईसवी), इमाम हंबल (780-855 ईसवी) और इमाम मालिक (711-795 ईसवी).
हनफ़ी
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इमाम अबू हनीफ़ा के समर्थक हनफ़ी कहलाते हैं। इस फ़िक़ह या इस्लामिक क़ानून को मानने वाले मुसलमान भी दो अलग अलग फिरकों देवबंदी एवं बरेलवी में विभाजित हैं जो एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते है।
20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेता मौलाना अशरफ़ अली थानवी (देवबन्द मदरसा) (1863-1943) और अहमद रज़ा ख़ां (बरेली मदरसा) (1856-1921) ने इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्या की जिसके आधार पर इनके समर्थक देवबंदी और बरेलवी धड़ों में विभाजित हैं।
देवबंदी
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मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना क़ासिम नानोतवी ने 1866 में दारुल उलूम देवबंद की स्थापना की थी। देवबंदी विचारधारा के विकास में मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही, मौलाना क़ासिम नानोतवी और मौलाना अशरफ़ अली थानवी का बड़ा योगदान है।
भारतीय उपमहाद्वीप अर्थात भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों का संबंध इन्हीं दो: देवबंदी एवं बरेलवी, पंथों से है
देवबंदी और बरेलवी दोनों विचारधाराओं का दावा है कि क़ुरान और हदीस ही उनकी शरियत का मूल स्रोत है जिसके अनुपालन के लिए इमाम का अनुसरण ज़रूरी है। इसलिए शरीयत के समस्त क़ानून इमाम अबू हनीफ़ा के फ़िक़ह के अनुसार हैं।
बरेलवी
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वहीं बरेलवी मुसलमान आला हज़रत रज़ा ख़ान बरेलवी के मार्ग का अनुसरण करते हैं। बरेली में आला हज़रत रज़ा ख़ान की मज़ार है जो बरेलवी मुसलमानों का सबसे बड़ा केंद्र है।
दोनों में पंथों में कई मतभेद हैं। जैसे बरेलवी इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद सर्वदर्शी,सर्वव्यापी और सर्वज्ञ हैं।वह सब कुछ देख रहे हैं।अर्थात बरेलवी मुहम्मद साहब को ही सब कुछ मानते हैं।अर्थात मुहम्मद ही उनके अल्लाह है।
इसके विपरीत देवबंदी मुहम्मद साहब को इंसान मानते हैं जो केवल अल्लाह के भेजे गए नबी थे उंन्हे अल्लाह के बाद स्थान पर रखते हैं।
बरेलवी सूफ़ी इस्लाम के अनुयायी हैं और उनके यहां सूफ़ी मज़ारों को काफ़ी महत्व प्राप्त है जबकि देवबंदी मुसलमान मजार पूजा गैर-इस्लामी मानते है
मालिकी
इमाम अबू हनीफ़ा के बाद सुन्नियों के दूसरे इमाम, इमाम मलिकी हैं।एशिया में इनकी संख्या काफी कम है।मलिकी ने 'इमाममोत्ता' नामक पुस्तक में शरीयत की व्याख्या की है।
उसके समर्थक मलिकी के बनाये नियमों का पालन करते हैं। ये समुदाय मुख्यतः मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका में पाए जाते हैं।
शाफ़ई
शाफ़ई इमाम मालिक का शिष्य था जो सुन्नियों का तीसरा प्रमुख इमाम हैं।उनके अनुयायी काफी बड़ी संख्या में हैं जो ज़्यादातर मध्य पूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में रहते हैं।
इस्लामी तौर-तरीक़ों के आधार पर यह हनफ़ी फ़िक़ह से काफी अलग है। उसके अनुयायी भी इस बात में विश्वास रखते हैं कि इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है।
हंबली
सऊदी अरब, क़तर, कुवैत, मध्य पूर्व और कई अफ्रीकी देशों के मुसलमान मुख्यतः इमाम हंबल के फ़िक़ह का अनुसरण करते हैं और अपने आपको हंबली कहते हैं।
सऊदी अरब की सरकारी शरीयत इमाम हंबल के धार्मिक क़ानूनों पर आधारित है।
उसके अनुयायियों का कहना है कि उसका बताया हुआ तरीक़ा हदीसों के अधिक करीब है।
इन चारों इमामों को मानने वाले मुसलमानों का मत है कि शरीयत का पालन करने के लिए इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है।
सल्फ़ी, वहाबी और अहले हदीस
सल्फी, अहले हदीस अथवा वहाबी के नाम से प्रसिद्द एक पांचवा सुन्नी धड़ा है जो इमामियत पर यकीन नही करता है उसका कहना है कि शरीयत को समझने और उसका सही ढंग से पालन करने के लिए सीधे क़ुरान और हदीस (पैग़म्बर मोहम्मद के कहे हुए शब्द) का अध्ययन करना चाहिए।
यह संप्रदाय चारों इमामों के ज्ञान, उनके शोध अध्ययन और उनके साहित्य का तो सम्मान करता है लेकिन उसका मत है कि इन इमामों में से किसी एक का अनुसरण अनिवार्य नहीं है।किसी भी विवादास्पद विषय मे ईमाम के बजाय अंतिम फ़ैसला क़ुरान और हदीस का ही होना चाहिए।
सल्फ़ी(वहाबी) उस इस्लाम को मानता है जो उसके अनुसार पैग़म्बर मोहम्मद के समय में था। सल्फ़ियत का विस्तार करने का श्रेय इब्ने तैमिया(1263-1328) और मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब(1703-1792) को है और अब्दुल वहाब के नाम पर ही यह समुदाय वहाबी नाम से भी जाना जाता है। मध्य पूर्व के अधिकांश इस्लामिक विद्वान उनकी विचारधारा से ज़्यादा प्रभावित हैं। वहाबी पंथ बेहद कट्टर और आतंकी विचारधारा का पौषक है। सऊदी अरब के मौजूदा शासक इसी विचारधारा को मानते हैं।अल-क़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन भी सल्फ़ी विचाराधारा का ही समर्थक था।
सुन्नी बोहरा
यह वर्ग गुजरात, महाराष्ट्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत का मुस्लिम व्यापारी समुदाय है । बोहरा, शिया और सुन्नी दोनों में पाए जाते हैं।
सुन्नी बोहरा हनफ़ी इस्लामिक क़ानून को मानते है जबकि सांस्कृतिक तौर पर यह दाऊदी बोहरा यानी शिया समुदाय के क़रीब हैं.
अहमदिया
हनफ़ी इस्लामिक क़ानून का पालन करने वाले मुसलमानों का एक समुदाय अपने आप को अहमदिया कहता है। इस समुदाय की स्थापना भारतीय पंजाब के क़ादियान में मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने की थी। अहमद के अनुयायियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ख़ुद नबी का ही एक अवतार थे
उनके अनुसार वे खुद कोई नई शरीयत तो नहीं लाए और पैग़म्बर मोहम्मद की शरीयत का ही पालन कर रहे हैं लेकिन गुलाम अहमद भी पैगम्बर ही हैं। मुसलमानों के लगभग सभी संप्रदाय इस बात पर सहमत हैं कि मोहम्मद साहब ही अंतिम पैगम्बर थे लेकिन अहमदियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ऐसे धर्म सुधारक थे जो नबी का दर्जा रखते हैं।
बस इसी बात पर मतभेद इतने गंभीर हैं कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानता। यद्यपि भारत, पाकिस्तान और ब्रिटेन में अहमदियों की अच्छी ख़ासी संख्या है।
पाकिस्तान में तो आधिकारिक तौर पर अहमदियों को इस्लाम से बेदखल कर दिया गया है।अहमदिया आन्दोलन की स्थापना वर्ष 1889 ई. में 'कादियान' (गुरदासपुर) नामक स्थान पर मिर्ज़ा गुलाम अहमद (1838-1908) द्वारा 19वीं सदी में की गई थी।
इसका मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में इस्लाम धर्म के सच्चे स्वरूप को बहाल करना एवं मुस्लिमों में आधुनिक औद्योगिक और तकनीकी प्रगति को धार्मिक मान्यता देना था। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने स्वयं को श्रीकृष्ण का अवतार भी मानना शुरू कर दिया था। इन्हीं कारणों से इस आन्दोलन को शास्त्र के प्रतिकूल एवं दिगभ्रमित माना गया। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने अपनी पुस्तक ‘बराहीन-ए-अहमदिया’ में अपने सिद्धान्तों की व्याख्या की है।
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