इतिहास का विध्यार्थी होने के कारण मेरे मन मे एक विचार हमेशा बना रहा कि हम जो इतिहास पढ़ते है उसमे ग्रामीण इतिहास कितना है। प्रबुद्ध एवं प्रतिष्ठित इतिहासकारों का इतिहास चिंतन कुछ मान्यताओं,परिकल्पनाओं और विचारधाराओं के पक्ष-पोषण के प्रति अधिक रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में "ग्रामीण इतिहास" लेखन न के बराबर हुआ है।
ग्रामीण प्रष्ठभूमि से जुड़ा होनें के कारण मेरी रुचि ग्रामीण इतिहास, परिवेश, ग्रामीण संस्कृति (लोक संस्कृति), ग्रामीण पात्रों,कथा-कहावतों और बातों मे कुछ ज्यादा ही रही है। जब हम ग्रामीण इतिहास पर दृष्टिपात करते है तो एक बड़ी शून्यता भाव में पहुँच जाते है क्योंकि ग्रामीण इतिहास के संकलन और संरक्षण के लिए तो हमारे पास कोई माध्यम है ही नहीं। गांवों के बारे मे यदि हमारे पास कुछ संरक्षित और सुरक्षित है तो केवल राजस्व संबंधी दस्तावेज़ । उसके अतिरिक्त ग्रामजनों की उपलब्धियां,उनका योगदान,चिंतनधारा,जीवन पद्दत्ति एवं उनकी प्रकृति और परिस्थितियों से संघर्ष की दास्तानें उनके जीवन के साथ ही समाप्त प्रायः हो जाती है। इसे सहजने के लिए न तो ग्रामीणों के पास कोई साधन ही है और न ही बहुत ज्यादा रुचि। क्योंकि देश मे अधिकांश ग्रामीण आबादी निर्धन और निरक्षर है और उनकी प्राथमिकताएँ दो वक्त की रोटी और रहन-सहन का समान्यतम स्तर प्राप्त करना है।
हमारे पास देश के अधिकांश गांवों की उत्पत्ति का इतिहास उपलब्ध नहीं है। अधिकांश प्राचीन इतिहासकारों के शौध का विषय वैदिक संस्कृति और हड़प्पा के उत्थान-पतन तक सीमित रहा है। औपनिवेशिक इतिहासकारों से प्रेरित अधिकांश भारतीय विद्वान इतिहासकारों ने वैदिक और हड़प्पाई संस्कृति को अलग अलग सिद्ध करने के लिए सारी ऊर्जा इस बात पर लगा दी कि हड़प्पा सभ्यता का पतन बाढ़ से हुआ अथवा अग्निकांड से। यह प्रकृतिक आपदा से नष्ट हुआ या फिर भयानक युद्ध के फलस्वरूप हड़प्पाई लोगों का अस्तित्व मिटा दिया गया।
जब हम गांवों मे जाकर उनकी अवस्थिति देखते हैं तो हड़प्पा के कथित पतन की विद्वान इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित समस्त अवधारणाएँ हास्यास्पद दिखाई देने लगती हैं, क्योंकि देश के अधिकांश प्राचीन आबाद गांवों की 1 से 10 किलोमीटर की परिधि में ही प्राचीन विनष्ट अधिवासों के प्रमाण भी उपलब्ध है। उदाहरण के लिए सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के हड़प्पाई अधिवास हुलास के बिलकुल पास मे बरसी, टिकरोल तथा मनोहरा नामक आबाद ग्रामीण बस्ती अस्तित्व मे हैं । इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के ही शामली जनपद मे बड़ी तथा छोटी भेंटों के पास हथछोया एवं यमुना किनारे स्थित विशाल टीले के पास इससोपुर टील।
ग्रामीण इतिहास के अवशेष ग्रामीण जीवन में ही सुरक्षित एवं संरक्षित हैं। ग्रामीण संस्कृति, कथा-कहावतें, लौकोक्तियाँ, मुहावरें, जनश्रुतियाँ, लोकगीत और यहाँ तक की ग्रामीण परम्पराएँ "ग्रामीण इतिहास के बड़े एवं जीवंत संग्रहालय" हैं।
कमोबेश हर भारतीय गाँव में एक समान पात्र मिलते है जिनसे अनेक किस्से-कहानियाँ जुड़ी होती हैं। ग्राम-जन प्रेरणा के लिए सुसज्जित पुस्तकालयों, अभिलेखागारों आदि में नहीं जाता है वरन वह अपने आस-पास के पात्रों से इसे हासिल करता रहा है। मनोरंजन के लिए भी हाल ही तक उसकी पहुँच तमाम आधुनिक और महंगे माध्यमों तक नहीं थी। यह कार्य भी उसने स्थानीय विदूषकों, लोकगायकों और देशज खेलों से ही लिया है।
डॉ अजीत तोमर उम्र मे मुझसे लगभग 5 वर्ष छोटे हैं लेकिन चिंतन और परिपक्वता में समान स्तर के हैं।मेरी रुचि का विषय इतिहास और भूगोल है तो वह मनो-सामाजिक विश्लेषण में महारत रखते है। हम दोनों की रुचि गाँव और इसके इतिहास तथा लोकजीवन मे है। इसीलिए हमने तय किया कि जिस चीज का अभाव हमें अकादमिक अध्ययन के दौरान अनुभव मे आया क्यों ने उस दिशा मे एक रचनात्म्क प्रयास किया जाए ? इसी दिशा मे हमने काम शुरू किया और अपने स्वयं के गाँव हथछोया (जनपद शामली,उत्तर प्रदेश) के इतिहास के संक्षिप्त पुनर्निर्माण, ग्रामीण जीवन और इसकी समस्याओं का मनो-सामाजिक विश्लेषण का प्रयास किया जाए! यह पुस्तक निश्चित ही पेशेवर इतिहास लेखन के मानकों पर खरी नहीं उतरती है लेकिन यह निश्चित है कि इस दिशा में यह एक "प्राथमिक अक्षर ज्ञान-पुस्तक" का काम करेगी। प्राचीन-इतिहासकारों, मनो-सामाजिक विश्लेषकों, को यह पुस्तक ग्रामीण जीवन, ग्रामीण अनुभवों और ग्रामीण जीवन की समस्याओं को समझने मे मदद करेगी।
ग्रामीण प्रष्ठभूमि से जुड़ा होनें के कारण मेरी रुचि ग्रामीण इतिहास, परिवेश, ग्रामीण संस्कृति (लोक संस्कृति), ग्रामीण पात्रों,कथा-कहावतों और बातों मे कुछ ज्यादा ही रही है। जब हम ग्रामीण इतिहास पर दृष्टिपात करते है तो एक बड़ी शून्यता भाव में पहुँच जाते है क्योंकि ग्रामीण इतिहास के संकलन और संरक्षण के लिए तो हमारे पास कोई माध्यम है ही नहीं। गांवों के बारे मे यदि हमारे पास कुछ संरक्षित और सुरक्षित है तो केवल राजस्व संबंधी दस्तावेज़ । उसके अतिरिक्त ग्रामजनों की उपलब्धियां,उनका योगदान,चिंतनधारा,जीवन पद्दत्ति एवं उनकी प्रकृति और परिस्थितियों से संघर्ष की दास्तानें उनके जीवन के साथ ही समाप्त प्रायः हो जाती है। इसे सहजने के लिए न तो ग्रामीणों के पास कोई साधन ही है और न ही बहुत ज्यादा रुचि। क्योंकि देश मे अधिकांश ग्रामीण आबादी निर्धन और निरक्षर है और उनकी प्राथमिकताएँ दो वक्त की रोटी और रहन-सहन का समान्यतम स्तर प्राप्त करना है।
हमारे पास देश के अधिकांश गांवों की उत्पत्ति का इतिहास उपलब्ध नहीं है। अधिकांश प्राचीन इतिहासकारों के शौध का विषय वैदिक संस्कृति और हड़प्पा के उत्थान-पतन तक सीमित रहा है। औपनिवेशिक इतिहासकारों से प्रेरित अधिकांश भारतीय विद्वान इतिहासकारों ने वैदिक और हड़प्पाई संस्कृति को अलग अलग सिद्ध करने के लिए सारी ऊर्जा इस बात पर लगा दी कि हड़प्पा सभ्यता का पतन बाढ़ से हुआ अथवा अग्निकांड से। यह प्रकृतिक आपदा से नष्ट हुआ या फिर भयानक युद्ध के फलस्वरूप हड़प्पाई लोगों का अस्तित्व मिटा दिया गया।
जब हम गांवों मे जाकर उनकी अवस्थिति देखते हैं तो हड़प्पा के कथित पतन की विद्वान इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित समस्त अवधारणाएँ हास्यास्पद दिखाई देने लगती हैं, क्योंकि देश के अधिकांश प्राचीन आबाद गांवों की 1 से 10 किलोमीटर की परिधि में ही प्राचीन विनष्ट अधिवासों के प्रमाण भी उपलब्ध है। उदाहरण के लिए सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के हड़प्पाई अधिवास हुलास के बिलकुल पास मे बरसी, टिकरोल तथा मनोहरा नामक आबाद ग्रामीण बस्ती अस्तित्व मे हैं । इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के ही शामली जनपद मे बड़ी तथा छोटी भेंटों के पास हथछोया एवं यमुना किनारे स्थित विशाल टीले के पास इससोपुर टील।
ग्रामीण इतिहास के अवशेष ग्रामीण जीवन में ही सुरक्षित एवं संरक्षित हैं। ग्रामीण संस्कृति, कथा-कहावतें, लौकोक्तियाँ, मुहावरें, जनश्रुतियाँ, लोकगीत और यहाँ तक की ग्रामीण परम्पराएँ "ग्रामीण इतिहास के बड़े एवं जीवंत संग्रहालय" हैं।
कमोबेश हर भारतीय गाँव में एक समान पात्र मिलते है जिनसे अनेक किस्से-कहानियाँ जुड़ी होती हैं। ग्राम-जन प्रेरणा के लिए सुसज्जित पुस्तकालयों, अभिलेखागारों आदि में नहीं जाता है वरन वह अपने आस-पास के पात्रों से इसे हासिल करता रहा है। मनोरंजन के लिए भी हाल ही तक उसकी पहुँच तमाम आधुनिक और महंगे माध्यमों तक नहीं थी। यह कार्य भी उसने स्थानीय विदूषकों, लोकगायकों और देशज खेलों से ही लिया है।
डॉ अजीत तोमर उम्र मे मुझसे लगभग 5 वर्ष छोटे हैं लेकिन चिंतन और परिपक्वता में समान स्तर के हैं।मेरी रुचि का विषय इतिहास और भूगोल है तो वह मनो-सामाजिक विश्लेषण में महारत रखते है। हम दोनों की रुचि गाँव और इसके इतिहास तथा लोकजीवन मे है। इसीलिए हमने तय किया कि जिस चीज का अभाव हमें अकादमिक अध्ययन के दौरान अनुभव मे आया क्यों ने उस दिशा मे एक रचनात्म्क प्रयास किया जाए ? इसी दिशा मे हमने काम शुरू किया और अपने स्वयं के गाँव हथछोया (जनपद शामली,उत्तर प्रदेश) के इतिहास के संक्षिप्त पुनर्निर्माण, ग्रामीण जीवन और इसकी समस्याओं का मनो-सामाजिक विश्लेषण का प्रयास किया जाए! यह पुस्तक निश्चित ही पेशेवर इतिहास लेखन के मानकों पर खरी नहीं उतरती है लेकिन यह निश्चित है कि इस दिशा में यह एक "प्राथमिक अक्षर ज्ञान-पुस्तक" का काम करेगी। प्राचीन-इतिहासकारों, मनो-सामाजिक विश्लेषकों, को यह पुस्तक ग्रामीण जीवन, ग्रामीण अनुभवों और ग्रामीण जीवन की समस्याओं को समझने मे मदद करेगी।
अंत मे, और सबसे महत्वपूर्ण
बात यह है कि इस पुस्तक मे प्रकाशित समस्त लेख हम दोनों लेखकों के निजी स्मरण, अनुभव और चीजों को
देखने के हमारे नज़रिये का प्रतिरूपण मात्र है। इस पुस्तक “हथछोया-कुछ इतिहास, कुछ बातें” को हम दोनों के
नज़रिये से लिखा गया है। हम यह दावा बिलकुल नहीं करते है कि यह पुस्तक हथछोया के
आधिकारिक इतिहास लेखन के लिए लिखी गई है। गाँव में एक से बढकर एक हस्तियाँ
पैदा हुई है,
यह
जरूरी नहीं है कि हम दोनों मे से कोई भी उन सभी के बारे मे अधिकृत जानकारी रखता ही
हो। मैंने स्वयं फेसबुक और व्हाट्सप्प के माध्यम से गाँव के लोगों, खासकर युवाओं, को इस पुस्तक के
लेखन के बारे मे जानकारी दी और उनसे गाँव के बारे मे लेख आमंत्रित किए। इतना ही
नहीं कुछ मित्रों से फोन पर भी इस संदर्भ मे बात की। लेकिन इस संदर्भ मे हमे
अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया। पुस्तक के अंतिम रूप से प्रकाशन के दिन तक हमारे
पास जो भी सामाग्री उपलब्ध थी, उसी का प्रकाशन कर हमने यह श्रमसाध्य कार्य सम्पन्न
करने के लिए अपनी-अपनी आहुति डाल दी। यह पुस्तक ग्रामीण जीवन के विषय में हमारी
प्रथम रचना जरूर है लेकिन अंतिम तो बिलकुल नहीं है। हम भविष्य मे भी इसी प्रकार की
रचना की उम्मीद रखते है, जब भी कभी हमारे पास उसके लिए प्रयाप्त सामग्री
होगी।
अक्सर लेखन कार्य लोग आर्थिक हितों की
पूर्ति के लिए करते है और इसीलिए विषय भी वही चुनते है जो बिकाऊ हो। इस पुस्तक की आर्थिक
उपादेयता को समझे बिना ही हमने इस कार्य पर आगे बढ्ने का निर्णय लिया है। यह अकारण
नहीं है। पुस्तक लेखन के पीछे हमारा ध्येय आर्थिक हितों से कहीं ज्यादा बड़ा है। हम, हमारे पास उपलब्ध ग्रामीण
जीवन से जुडी उन स्वर्णिम स्मृतियों, जिनको हमने ज़िंदादिली से और भरपूर जिया है, को अपनी आने वाली
पीढ़ियों को हूबहू सौंप देना चाहते है। जब भी कभी हमारी भावी पीढ़ियों को इतना अवकाश
मिलेगा कि वे भागदौड़ की जिंदगी मे पीछे छूट रही जिंदादिली से रूबरू होना चाहेगी, तो निश्चित ही यह
पुस्तक उन्हें उस सब का एक वास्तविक अनुभव कराने मे अपनी सकारात्मक भूमिका निभा
सकेगी। निश्चित ही यह कार्य अपने आप मे इसलिए भी अनूठा है कि भारत मे इस प्रकार का लेखन अत्यंत
दुर्लभ एवं सर्वथा अलग है।
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