गुरुवार, 9 नवंबर 2017

पटेली शैली में हो कश्मीरी वार्ता


कश्मीर:पटेली शैली में हो वार्ता
@सुनील सत्यम
--------------मानस-मंथन----------
भारत सरकार जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली चाहती है।इसलिए आतंकवादियों एवं अलगाववादियों से दोहरे स्तर पर निपटने की रणनीति पर चल रही है।आतंकवादियों को स्थानीय नागरिकों से प्राप्त खुफिया जानकारी के आधार पर उनके अंतिम अंजाम तक पहुंचाकर घाटी को फिर से स्वर्ग बनाने के हर सम्भव प्रयास किये जा रहे हैं।हाल ही में जम्मू एवं कश्मीर समस्या से जुड़े सभी पक्षकारों से वार्ता करने के लिए भारत सरकार द्वारा आईबी के पूर्व महानिदेशक दिनेश्वर शर्मा को मुख्य वार्ताकार नियुक्त किया गया है। शर्मा मसले का हल करने के लिए कश्मीर से जुड़े सभी पक्षों से कहीं भी और कभी भी,किसी भी संबंध में वार्ता करने को स्वतंत्र हैं। स्पष्ट है कि सरकार मुद्दे के स्थाई समाधान के लिए गम्भीर है। कश्मीर घाटी में हालात को सामान्य करने एवं जम्मू एवं कश्मीर को विकास के महामार्ग पर  चलाने के लिए सकारातमक वार्ता जरूरी है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। कश्मीर में अराजक तत्व दो श्रेणी में वर्गीकृत किये सकते हैं।आतंकवादी एवं अलगाववादी। आतंकवादी, पाकिस्तान प्रायोजित हैं। वार्ता के दौरान हमें सीमा पर तैयार भारत के बहादुर सैनिकों की "तैयार गन" के द्वारा उनका हर प्रकार से न केवल मुकाबला करना है वरन भारतीय सेना के सेना अध्यक्ष के शब्दों में "उनको रिसीव कर के ढाई फुट जमीन के नीचे पहुंचाते रहना है"। यह प्रक्रिया तब तक अनवरत चलती रहनी चाहिए जब तक कि वह ऐसा करते रहे।यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा प्रश्न है।इसलिए इसमें कश्मीर समस्या का कोई विशेष तत्व निहित नहीं है। कश्मीर घाटी में अलगाववादी तत्व कश्मीर में अशांति  के लिए प्रमुख कारक हैं। वह भारतीय हैं लेकिन पाकिस्तान को अपना आका मानते हैं।वह कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल कराने के लिए भारत के विरुद्ध राष्ट्रद्रोहात्मक कार्य करते हैं। आए दिन भारत विरोधी षड्यंत्र  रचते रहते हैं। तथाकथित भटके हुए कश्मीरियों को हमें राह पर लाना है। वार्ता उसके लिए एक बेहतर विकल्प है। संवाद से ही समाधान निकलते हैं। लेकिन अलगाववादियों से हमें सख्त "पटेली शैली" में वार्ता करनी है। "पटेली शैली" से मेरा अभिप्राय भारत के प्रथम गृहमंत्री लौहपुरुष सरदार पटेल की देशी रियासतों को भारत में विलय करने के समय अपनाई गई शैली से है। जिसमें सरदार पटेल देसी रियासतों को उनके शासकों द्वारा भारत में विलय के संबंध में ना नुकुर सुनने के अतिरिक्त उनकी अन्य सभी समस्याओं को खुले मन से सुनते भी थे और उनका समाधान भी देते थे। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मामले पर सरदार पटेल, उद्दंड देशी रियासतों के किसी भी दबाव में नहीं आए। हैदराबाद के शासक कासिम रिजवी द्वारा आज के कश्मीरी अलगाववादियों से भी अधिक दबाव सरदार वल्लभ भाई पटेल पर बनाने का प्रयास किया गया था। कासिम ने घोषणा की थी कि "यदि भारतीय अधिराज्य, हैदराबाद में प्रवेश करेगा तो उसे हैदराबाद में रहने वाले डेढ़ करोड़ हिंदुओं की हड्डियों एवं राख के अलावा कुछ हासिल नही होगा।" निजाम की धमकी कश्मीरी अलगाववादियों की किसी भी धमकी से कहीं ज्यादा गम्भीर एवं दबावात्मक थी। लेकिन सरदार पटेल नहीं झुके। उन्होंने न केवल हैदराबाद का ऑपरेशन पोलो के द्वारा रक्तहीन तरीके से भारत में विलय सुनिश्चित किया वरन निजाम की समस्याओं को सुनकर उनका निदान भी किया। सरकार ने कश्मीर में दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार नियुक्त करके मन की बात की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का कार्य किया है। जन-संवाद से समाधान की राह बनाती है ।वार्ता में हम अपनी बात कहेंगे भी और अलगाववादी तत्व एवं कश्मीर के अन्य लोगों की वार्ता सुनेंगे भी।सरकार जम्मू कश्मीर को समग्र रूप से देखती है।अर्थात जब कश्मीर समस्या का जिक्र आता है तो उसमें जम्मू,लद्दाख,गिलगिट-बाल्टिस्तान सहित समस्त पाक अधिक्रान्त जम्मू कश्मीर एवं चीन के अवैध कब्जे में शामिल भाग भी समाहित है। आम भारतीय के लिए कश्मीर समस्या का अर्थ केवल घाटी के कुछ जिलों के असंतुष्ट अलगाववादी नही हैं।वरन वहां के हिंदुओं,बौद्धों, सिखों एवं शियाओं का दर्द भी शामिल है।कश्मीरी पंडितों सहित विभाजन के समय जम्मू में आकर बसे हजारों शार्णनार्थियों का पुनर्वास एवं नागरिकता सम्बन्धी मसले भी आते है।कश्मीर को औधोगिक विकास के रास्ते ले जाना,बाधित पर्यटन को पुनः पटरी पर लाना,पाकिस्तान से अवैध घुसपैठ और घाटी में म्यांमार से आये रोहिंग्या घुसपैठियों से निपटना भी कश्मीर समस्या के मुद्दे के केंद्र में शामिल किया जाना चाहिए।जम्मू कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर घाटी नही है।कश्मीर घाटी समस्त जम्मू कश्मीर का लगभग 1/9 भाग है।इसके अतिरिक्त जम्मू,लद्दाख एवं गिलगिट बाल्टिस्तान,जम्मू कश्मीर के महत्वपूर्ण सम्भाग है।जम्मू एवं लद्दाख न केवल शांत एवं संतुष्ट है वरन यह घाटी के अलगाववादियों को ना पसंद भी करते हैं।गिलगिट-बाल्टिस्तान, पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है।इसके अतिरिक्त ऑक्साइचीन एवं शक्सगाम घाटी चीन के अवैध कब्जे में हैं।केवल घाटी कश्मीर नही है और न ही घाटी की समस्या ही सम्पूर्ण जम्मू एवं कश्मीर की समस्या है।ऐसे में अलगाववादी आतंक एवं बंदूक के दम पर पाकिस्तानी सहायता से घाटी में अस्थिरता उत्पन्न करके इसे सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर की समस्या दिखाने पर तुले हुए हैं।
जम्मू कश्मीर के भारत में अधिमिलन का संवैधानिक अधिकार केवल वहां के शासक महाराजा हरिसिंह को था।अधिमिलन की प्रक्रिया महाराजा द्वारा 26 अक्टूबर1947 को सम्पादित की जा चुकी है।जनमत संग्रह का जहां तक सवाल है, 1956 में जम्मू कश्मीर की चयनित विधान सभा उस मसले पर अपनी मुहर लगा चुकी है।यह कश्मीरी अलगाववादियों को साबित करना है कि क्या घाटी सहित जम्मू कश्मीर के सभी 22 जिलों एवं पाक अधिक्रान्त जम्मू कश्मीर में भी उनको जन समर्थन प्राप्त है?
कश्मीर समस्या की जड़ में जम्मू कश्मीर में असमानुपातिक विधान सभा एवं लोकसभा क्षेत्रों का विभाजन, पाकिस्तानी अतिक्रमण, अहले हदीस अनुयायियों द्वारा मस्जिदों एवं मदरसों का राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के शिक्षण,प्रशिक्षण एवं प्रसार के लिए इस्तेमाल,शरणार्थी कश्मीर पंडितों के पुनर्वास,आतंकवाद के कारण पर्यटन एवं आर्थिक विकास का अवरुद्ध होना, विभाजन के समय एवं भारत-पाक आक्रमण के कारण कश्मीर में आये शरणार्थियों को नागरिकता एवं मतदान का अधिकार देना, आदि शामिल है।
कश्मीरियत का सम्मान है लेकिन कश्मीरियत,भारतीयता से बड़ी नही हो सकती है।अलगाव के नाम पर असंवैधानिकता को प्रश्रय नही दिया जा सकता है।धारा 370 के अस्थाई प्रावधानों को बिना ससंदीय अनुमोदन के स्थाई नही किया जा सकता है।राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में शामिल की गई धारा 35 ए अध्यादेश से ज्यादा अहमियत की नही है।अध्यादेश की समय सीमा अनिश्चित नही है।इस तरह संवैधानिक तौर पर अब धारा 35 ए शून्य है।यदि इसे वैधानिक बनाना है तो संसदीय प्रक्रिया का पालन करके ही ऐसा किया जा सकता है।अलगाववादियों की इच्छा ही शासन एवं कानून नही हो सकती है।संविधान के प्रावधानों के अनुकूल ही एक तय सीमा तक किसी क्षेत्र अथवा राज्य को स्वायत्तता सम्भव है।जम्मू कश्मीर भी इसका अपवाद नही है।ज्यादा जनसँख्या के बावजूद भी शेख अब्दुल्ला के समय से ही जम्मू कश्मीर की राजनीति को घाटी केंद्रित रखने के लिए जम्मू को कश्मीर से कम प्रतिनिधित्व दिया गया है।जम्मू कश्मीर का केवल मुस्लिम बाहुल्य होना, अलगाववादियों की मंशानुरूप जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान की झोली में डाल देने का आधार नही हो सकता है।वहां के अल्पसंख्यक हिंदुओं,बौद्धों एवं सिखों की राय भी महत्वपूर्ण है।गिलगिट बाल्टिस्तान के शिया मुस्लिम कभी पाकिस्तान के साथ नही जाना चाहेंगे।वैसे भी जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह संयुक्त राष्ट्र संघ सुझाव का सबसे अंतिम और तीसरा बिंदु है।क्या अलगाववादी पाकिस्तान पर इसके लिए दबाव बना सकते हैं कि जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह के लिए परिस्थितियां तैयार करने के लिए वह अधिक्रान्त जम्मू कश्मीर से अतिक्रमण समाप्त करें।यदि वे यह नही कर सकते हैं जो वो करते भी नही हैं,तो इसका अर्थ स्पष्ट है कि वे भारत के इस राज्य को अलग करना चाहते हैं। जिसकी अनुमति न तो देश का संविधान देता है और न ही जनता! यदि अलगाववादी यह तय ही कर चुके हैं कि वह देश को खंडित करना चाहते हैं तो फिर उनके लिए भी तैयार गन एवं खुला मन नीति ही कारगर होगी।जिस स्वाधीनता को पाने के लिए देश ने अपना रक्त बहाया है उसे बचाने के लिए भी हम शत्रु का रक्त बहाने में संकोच नही कर सकते हैं।हम अलगाववादियों के द्वारा जम्मू कश्मीर के अपहरण की अनदेखी नही कर सकते हैं।
कश्मीर समस्या के समाधान के लिए वार्ता करते समय हमें सीमा पर सतर्कता में किसी तरह की रियायत किसी भी सूरत में नही देनी है।सीमा पर लगातार दबाव एवं अलगाववादी तत्वों से संवैधानिक दायरे में वार्ता करनी होगी।राष्ट्र की अखंडता एवं संघीय स्वरूप के विरुद्ध कोई रियायत किसी भी पक्ष को नही दी जा सकती है।वार्ता के समानांतर, अलगाववादी एवं स्वार्थी तत्वों को सार्वजनिक रूप से अनावरित करते रहने की नीति पर भी ध्यान केंद्रित रखना होगा।
(प्रस्तुत लेख में लेखक की निजिराय व्यक्त की गई है)

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